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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 179
करता हो, ऐसे जीव का मरण बलायमरण कहा गया है। 357 'भगवतीआराधना' के अनुसार विषय - वासनाओं से मुक्त व्यक्ति लम्बी अवधि से रत्नत्रय का पालन करता रहा हो, लेकिन मृत्यु के समय शुभध्यान के बदले अशुभध्यान से ग्रस्त हो जाता है, तो ऐसे व्यक्ति के मरण को बलायमरण कहा गया है। 358 अतः, दर्शनपण्डित, ज्ञानपण्डित तथा चारित्रपण्डित का भी बलायमरण सम्भव कहा गया
५. तशातमरण :- संगरंगशाला में मरण के गाँचवें पकार में यह कहा गया है कि जो जीव इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होकर मरण को प्राप्त होता है, ऐसे मरण को वशातमरण कहते हैं। 'समवायांगसूत्र' के अनुसार जो जीव इन्द्रिय-विषयों के वश होकर, अर्थात् उनसे पीड़ित होकर मरण को प्राप्त होता है, उस मरण को वशातमरण कहा गया है। जैसे- रात में पतंगे दीपक की ज्योति से आकृष्ट होकर मरते हैं, उसी प्रकार किसी भी इन्द्रिय के विषय से पीड़ित होकर मरना ही वशातमरण कहलाता है।५६
___'भगवतीआराधना' के अनुसार ऐन्द्रिक-विषय-वासनाओं के वशीभूत होकर, अर्थात् आर्त एवं रौद्रध्यानपूर्वक जीव का जो मरण होता है, उस मरण को वसट्टमरण कहा गया है।
६. अन्तःशल्यमरण :- संवेगरंगशाला के अनुसार प्रस्तुत मरण के सन्दर्भ में यह कहा गया है कि जो लज्जावश, अभिमानवश, अथवा बहुश्रुत होने के कारण अपने दुश्चरित्र को गुरु के समक्ष प्रकट नहीं करते हैं, अथवा गारवरूप कीचड़ में फंसे हुए होने से अपने अतिचारों (दोषों) को दूसरे के समक्ष नहीं कहते हैं, वे निश्चय से आराधक नहीं होते हैं, अतः अन्त समय में उनका दर्शन, ज्ञान और चारित्र शल्ययुक्त होने से उनका मरण अन्तःशल्यमरण कहलाता है।361
“समवायांगसूत्र के अनुसार मन के भीतर किसी प्रकार के शल्य को रखकर मरनेवाले जीव के मरण को अन्तःशल्यकरण कहा गया है, जैसे- किसी संयमी साधक के व्रतों में कोई दोष लग गया हो और लज्जा या अभिमानवश वह,
357 समवायांगसूत्र, पृ. ५३. 358 भगवतीआराधना, पृ. ५७. 359 समवायांगसूत्र, पृ. ५३. 360 भगवतीआराधना, पृ. ५७. ..361 संवेगरंगशाला, गाथा ३४५१-३४५२.
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