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________________ 156/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री को जाना जा सकता है, क्योंकि समाधिमरण ग्रहण करनेवाले साधकों के मृत्युकाल को जानने के लिए ये विद्याएँ उपयोगी होती हैं। संवेगरंगशाला में कहा गया है कि साधक को सम्पूर्ण आलोचना कराने के पश्चात् चाहे साधक सशक्त हो, अथवा अशक्त, यदि उसकी मृत्यु नजदीक हो, तो उसे शीघ्र भक्त-परिज्ञा करा देना चाहिए, किन्तु जिन साधकों की मृत्यु अभी दूर है या निकट है, ऐसा ज्ञान नहीं होने पर उस काल में जो उचित हो, उसके अनुसार प्रतिज्ञा ग्रहण कराना चाहिए। यद्यपि मृत्युकाल का सही ज्ञान तो सर्वज्ञ परमात्मा के अतिरिक्त कोई नहीं जान सकता है, फिर भी मृत्युकाल को जानने के लिए ग्रन्थकार ने कुछ उपायों का या संकेतों का उल्लेख किया है। जैसे- बादल के आने से वृष्टि का ज्ञान होना, अंधेरे में दीपक के प्रकाश से वस्तु का दिखाई देना, धुएँ से अग्नि की उपस्थिति को एवं पुष्प से फल की उत्पत्ति को जाना जा सकता है, वैसे ही शास्त्रों में वर्णित निम्न ग्यारह उपायों के द्वारा मृत्यु के काल को जाना जा सकता है। वे ग्यारह उपाय इस प्रकार हैं : (१) देवता-द्वार (२) शकुन-द्वार (३) उपश्रुति-द्वार (४) छाया-द्वार (५) नाड़ी-द्वार (६) निमित्त-द्वार (७) ज्योतिष-द्वार (८) स्वप्न-द्वार (E) रिष्ट-द्वार (१०) विद्या-द्वार और (११) यंत्र-द्वार। १. देवता-द्वार :- देवता-द्वार का उल्लेख करते हुए यह कहा गया है कि इस विद्या के द्वारा व्यक्ति अपने मृत्युकाल को जान सकता है। देवताओं का आह्वान करते समय व्यक्ति सर्वप्रथम मन, वाणी और शरीर को स्थिर करे और विशुद्ध भावों से चित्त को भावित करे। शास्त्रों में विदित नियमानुसार निश्चल मन से “ऊँ नरवीरे ठः ठः'- इस प्रकार की विद्या का दस हजार आठ बार जाप करे। पहले सूर्यग्रहण, अथवा चन्द्रग्रहण के समय इस विद्या का विधिपूर्वक जाप करके इस विद्या को सिद्ध करे। फिर प्रसंग उपस्थित होने पर इस विद्या का पुनः एक हजार आठ बार ध्यान करे।280 इस तरह शुभध्यान (जाप) के प्रभाव से प्रभावित होकर विद्या की अधिष्ठायिका (देवी) अंगूठे आदि स्थान में उतरती है। __ "इस तरह विद्या के द्वारा देवता को दर्पण में उतारकर, फिर उस दर्पण को एक कन्या को दिखाएं, जिससे वह कन्या दर्पण में स्थित देवता के प्रतिबिम्ब को देखकर उनके पास से सर्व निर्णय सुनकर प्रश्नकर्ता से कहती है। इस तरह 279 संवेगरंगशाला, गाथा ३०५७-३०६५. 280 संवेगरंगशाला, गाथा ३०६८-३०६६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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