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________________ 120 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री तीन गुप्तियाँ : __ मोक्षाभिलाषी आत्मा को आत्मरक्षा के लिए इन्द्रिय और मन का गोपन करना ही गुप्ति कहलाता है। असत्य प्रवृत्तियों या अशुभ योगों को रोकना ही गुप्ति है। आत्मा को मन, वचन और काया की अशुभ प्रवृत्तियों से हटाकर उसकी अशुभ से रक्षा करना ही गुप्ति है। गुप्ति तीन हैं - १. मनोगुप्ति, २. वचनगुप्ति और ३. कायगुप्ति। १. मनोगुप्ति : मन को अप्रशस्त, अशुभ एवं कुत्सित संकल्प-विकल्पों से हटाना यानी आर्त्त-रौद्रध्यान तथा संरम्भ, समारम्भ, आरम्भ सम्बन्धी मानसिक-संकल्प-विकल्पों को रोक देना। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार श्रमण संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ की हिंसक प्रवृत्तियों में जाते हुए मन को रोके, यही मनोगुप्ति है। 179 २. वचनगुप्ति : वचन के अशुभ व्यापार को रोकना, अर्थात् असत्य, कर्कश, कठोर, कष्टजनक, अहितकर भाषा का प्रयोग नहीं करना वचनगुप्ति है। नियमसार में स्त्री-कथा, राज-कथा, चोर-कथा, भोजन-कथा आदि में वचन की अशुभ प्रवृत्ति को रोकना एवं असत्य वचन का परिहार करना ही वचनगुप्ति कहा है। ३. कायगुप्ति : उठना-बैठना, खड़ा होना, आदि कायिक व्यापार हैं। शरीर को असत् व्यापारों से निवृत्त करना और प्रत्येक क्रिया में अयतना या असावधानी का परित्याग करके सावधानी रखना। नियमसार के अनुसार बन्धन, छेदन, मारण, आकुंचन, प्रसारण, आदि शारीरिक क्रियाओं से निवृत्ति कायगुप्ति है। दसविध मुनिधर्म : संवेगरंगशाला में दसविध मुनि-धर्म का उल्लेख तो है, किन्तु उनके नाम तथा उनका विस्तृत विवरण एक स्थान पर नहीं मिलता है। इसमें प्रत्येक मुनि-धर्म का स्वतन्त्र रूप से उल्लेख अवश्य प्राप्त होता है। मुनि-जीवन में इन दशविध धर्मों का पालन करना अनिवार्य होता है। जैन ग्रन्थों में 'दशविध श्रमण धर्म' का 17 उत्तराध्ययनसूत्र - २४/१. नियमसार ६७ 181 नियमसार ६८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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