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________________ 118 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री आघात एवं परिताप देने वाली भाषा नहीं बोलना चाहिए, बल्कि वाणी का विवेक रखते हुए सावधानीपूर्वक बोलना चाहिए। मधुरभाषी व्यक्ति स्वजनों का प्रिय एवं विश्वसनीय बनता है, अतः व्यक्ति को अत्यन्त अल्प, वह भी पहले विचार करके, फिर बोलना चाहिए। प्रत्येक शब्द को तौल-तौल कर बोलना चाहिए, वाणी का विवेक श्रमण व श्रावक जीवन- दोनों के लिए आवश्यक है। मुनि को कैसी भाषा बोलना चाहिए, इसकी चर्चा सत्य-महाव्रत के सन्दर्भ में विस्तार से की जा चुकी है, अतः यहाँ उसका पुनः विवेचन नहीं किया गया है। (३) एषणा-समिति : मनि को संयम-निर्वाह के लिए आहार और स्थान आदि की आवश्यकताएँ बनी रहती हैं। विवेक रखते हुए मुनि को याचना द्वारा इन आवश्यक वस्तुओं को प्राप्त करना चाहिए, यही एषणा-समिति है। उत्तराध्ययन में एषणा के तीन भेद प्रतिपादित किए गए हैं173 :- १. गवेषणा-खोज की विधि २. ग्रहणैषणा-ग्रहण (प्राप्त) करने की विधि और (३) परिभोगैषणा-आहार करने या वस्तु का उपयोग करने की विधि- एषणा; ये तीनों प्रकार मुनि के आहार, उपधि (वस्त्र-पात्र) और शय्या (स्थान) के सम्बन्ध में बतलाए गए हैं। जैन-मुनियों की भिक्षावृत्ति अन्य धर्म के मुनियों से बिलकुल भिन्न है। मुनि अपने संयम-निर्वाह हेतु किसी एक घर पर भाररूप बने बिना अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा आहार लाता है, इस सम्बन्ध में कहा भी गया है कि जिस प्रकार भ्रमर विभिन्न वृक्षों के फूलों को कष्ट नहीं देता हुआ अपना आहार ग्रहण करता है, जैसे गाय मूल से घास न खाकर ऊपर-ऊपर से थोड़ी घास खाकर अपना निर्वाह करती है, उसी प्रकार मुनि भी किसी को कष्ट नहीं देता हुआ, थोड़ा आहार ग्रहण करता है। 174 मुनि को राजमहल, वेश्या-गृह, गुप्तचरों के मंत्रणा-स्थल आदि से आहार लाना निषिद्ध है, क्योंकि इनके कारण से सन्देह में पकड़े जाने का भय रहता है एवं यह लोकापवाद का कारण भी होता है।15 उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार भिक्षुक दिन के प्रथम प्रहर में ध्यान करे, दूसरे प्रहर में स्वाध्याय करे, तीसरे प्रहर में भिक्षा हेतु नगर अथवा गाँव में प्रवेश 173 उत्तराध्ययनसूत्र - २४/११ 174 दशवकालिक - १/२, ४ 175 दशैवकालिक - ५/१/६,१६ 176उत्तराध्ययनसूत्र - २६/१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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