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88 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री
इन अतिचारों के सेवन से ब्रह्मचर्य दूषित होता है, अतः श्रावक को इन अतिचारों से बचना चाहिए।
५. परिग्रह-परिमाण - व्रत :- परिग्रह को पाप का मूल माना है, पर भ्रम से परिग्रह - पाप को पुण्य मान लिया जाता है। परिग्रह एक भयंकर पाप है, जो जीवन को पतन के गहरे गर्त में डाल देता है। एक परिग्रह के कारण अन्य अनेक पाप पनपते हैं। प्रश्नव्याकरण में स्पष्ट कहा है कि परिग्रह के लिए लोग हिंसा करते हैं, झूठ बोलते हैं, चोरियां करते हैं, मिलावट, धोखेबाजी करते हैं और दूसरों को अपमानित करते हैं। श्रावक पूर्ण रूप से परिग्रह का त्याग नहीं कर सकता। वह इन नौ प्रकार के परिग्रहों में से अपने लिए आवश्यक वस्तुओं की मर्यादा कर शेष समस्त वस्तुओं के ग्रहण व संग्रह का त्याग करता है । यही परिग्रह - परिमाण व्रत
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परिग्रह-परिमाण - व्रत के पाँच अतिचार निम्न हैं :
१. क्षेत्रवास्तु - परिमाणातिक्रम
३. द्विपद- चतुष्पद - परिमाणातिक्रम
२. हिरण्य - सुवर्ण परिमाणातिक्रम
४. धन-धान्य- परिमाणातिक्रम
५. कुप्य-प - परिमाणातिक्रम।
मर्यादा से अधिक परिग्रह हो जाए, तो दानादि में उपयोग कर लेना चाहिए । इस व्रत को ग्रहण करने से जीवन में सादगी, मितव्ययिता और शान्ति अनुभव होती है।
गुणव्रतों का महत्व :- अणुव्रतों के विकास के लिए गुणव्रतों का विधान किया
गया है।
१. दिशापरिमाण - व्रत २. उपभोग - परिभोगपरिमाण - व्रत एवं ३. अनर्थदण्ड- विरमण-व्रत। ये गुणव्रत मूल- गुणों की रक्षा करते हैं । अणुव्रत स्वर्ण के सदृश हैं, तो गुणव्रत स्वर्ण की चमक-दमक बढ़ाने के लिए पॉलिश के सदृश हैं। गुणव्रत के द्वारा अणुव्रत की सीमा में रही हुई मर्यादा को और अधिक संकुचित किया जाता है।
६. दिशापरिमाण व्रत :- पाँचवें गुणव्रत में सम्पत्ति आदि की मर्यादा की जाती है एवं प्रस्तुत व्रत में श्रावक सम्पत्ति प्राप्त करने की उन प्रवृत्तियों का क्षेत्र सीमित करता है। वह यह प्रतिज्ञा ग्रहण करता है- "चारों दिशाओं में व ऊपर-नीचे निश्चित सीमा से आगे बढ़कर मैं किंचित् भी स्वार्थमूलक प्रवृत्ति नहीं करूँगा।'
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