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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 75 १. लोक-निन्दित व्यापार का त्याग २. कालुष्यरहित सद्धर्म-क्रिया का परिपालन ३. लोकप्रिय व्यवहार (मार्गानुसारिका) ४. ज्ञानवृद्ध और वयोवृद्ध जनों की सेवा ५. शास्त्र का अभ्यास ६. परोपकार की वृत्ति ७. गुणीजनों की प्रशंसा ८. दाक्षिण्यपरायणता ६. गुणों के प्रति अनुराग १०. उत्सुकता या चंचलता का त्याग ११. अक्षुद्रपना, अर्थात् उदार दृष्टिकोण १२. परलोकभीरूता १३. क्रोध का परिहार १४. देव-गुरु और अतिथि की पूजा १५. पक्षपात बिना न्याय का पालन १६. दुराग्रह का त्याग १७. दूसरों के प्रति स्नेहपूर्ण व्यवहार १८. संकट के समय में धैर्य १६. सम्पत्ति की उपलब्धि में भी निरभिमानता २०. स्वयं के गुण की प्रशंसा सुनने में लज्जा का अनुभव करना २१. न्यायपूर्वक पुरुषार्थ से धनार्जन करना २२. लज्जाशीलता २३. दीर्घदर्शिता २४. उत्तम पुरुषों के मार्ग का अनुसरण २५. प्रतिज्ञा का सम्यक् प्रकार से पालन २६. सद्गुणों का सतत अभ्यास २७. लोकहित की भावना २८. विनम्रता २६. हितोपदेश का आदरपूर्वक स्वीकार करना ३०. देव-गुरु-धर्म का अवर्णवाद नहीं करना ३१. लोक एवं परलोक में कल्याणकारी गुणों को स्वीकार करना। इन गणों के निर्देश के पश्चात संवेगरंगशाला में यह कहा गया है कि जो व्यक्ति इन सामान्य गुणों के परिपालन में भी असमर्थता का अनुभव करता है, वह विशेष गुणों का परिपालन कैसे कर पाएगा? जो व्यक्ति सरसों के पौधे को उखाड़ने में भी कठिनाई का अनुभव करता है, वह पर्वत को कैसे उखाड़ पाएगा। 83 इस प्रकार हम देखते हैं कि चाहे संवेगरंगशाला में पैंतीस मार्गानुसारी गुणों का, अथवा इक्कीस श्रावक के गुणों का स्पष्ट रूप से कोई वर्णन नहीं है, फिर भी प्रस्तुत प्रसंग में ग्रन्थकार ने उन सभी योग्यताओं का निर्देश किया है, जो एक श्रावक के लिए परिपालनीय हैं, साथ ही हम यह भी देखते हैं कि जिनचन्द्र द्वारा वर्णित इन गुणों में पूर्वोक्त सभी गुण समाहित हो जाते हैं। इस प्रकार श्रावक के मार्गानुसारी गुणों के सम्बन्ध में आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने प्रस्तुत कृति में अपना मौलिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। श्रावक के षटावश्यक कर्तव्य : जैन-ग्रन्थों में श्रावक के षटावश्यक-कर्तव्यों का भी उल्लेख मिलता है। इस सम्बन्ध में हमें दो परम्पराएँ मिलती हैं। प्राचीन परम्परा के अनुसार निम्न षटावश्यक को ही श्रावक के षट् कर्तव्य माना गया है - १. सामायिक २. 85 संवेगरंगशाला, गाथा - १५२०/१५२१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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