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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 63
आराधना का सामान्य अर्थ वीतराग परमात्मा के आदेशों के अनुसार जीवन जीने का प्रयत्न करना है। प्रस्तुत द्वार में सर्वप्रथम यह बताया गया है कि आराधक होने के लिए जाति, कुल, पद, वर्ण, आदि का कोई बन्धन नहीं है। वस्तुतः, आराधक तो वही हो सकता है, जो जाति, कुल, वर्ण, पद, आदि के अहंकार से ऊपर उठ चुका है। जैन धर्म में आराधक बनने के लिए वर्ण, जाति और कुल आदि का कोई बन्धन नहीं है। इस सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में यह कहा गया है कि जिस व्यक्ति में गुणों और गुणिजनों के प्रति आदर का भाव हो, जो विनम्र हो तथा जिसके हृदय में आराधक जीवों के प्रति वात्सल्य का भाव हो, वह व्यक्ति आराधना करने, अर्थात् जिन-धर्म के परिपालन के योग्य है। 54
इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि जिसमें अनन्त गुणों से अलंकृत अरिहन्त परमात्मा के प्रति पूजा और सत्कार के भाव हों; देव, गुरु और धर्म के प्रति जिसकी अटूट श्रद्धा हो, वह व्यक्ति आराधना करने के योग्य होता है।
इसी तथ्य को एक अन्य रूप में प्रस्तुत करते हुए यह भी बताया गया है कि जो व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों के गुणों को देखता है, जिसमें दूसरों के दोषदर्शन की प्रवृत्ति नहीं है, ऐसा व्यक्ति आराधना करने के, अर्थात् संयम ग्रहण करने के योग्य है।
आगे पुनः, आराधक की योग्यता को स्पष्ट करते हुए प्रस्तुत कृति में कहा गया है कि जो व्यक्ति बन्दर की तरह चंचल एवं दुष्ट प्रकृति वाले मन का निग्रह करने में समर्थ हो और जो सिंह के समान अति कठिनता से विजित होने वाली इन्द्रियों का नियन्त्रण करने में समर्थ होता है, वही व्यक्ति आराधक बन सकता है।
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आराधक की तीसरी योग्यता उसका ज्ञानयुक्त होना है। यहाँ आचार्य ने ज्ञान को दीपक के समान कहा है। ज्ञान के माध्यम से ही जीव लोक - अलोक, पुण्य-पाप, शुभ-अशुभ, आदि का विवेक कर सकता है। ज्ञान के अभाव में मनुष्य जीवन पशुवत् होता है, अतः यह कहा गया है कि जो व्यक्ति ज्ञानी हो तथा ज्ञानी पुरुषों के प्रति आदर और सत्कार का भाव रखता हो, वही आराधक बन सकता है, अर्थात् मुनि - जीवन को स्वीकार कर सकता है।
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54 संवेगरंगशाला, गाथा ८१०-८१६.
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सवगरंगशाला, गाथा ८१७-६१६.
56 संवेगरंगशाला, गाथा ८२०-८२१
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