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________________ जैन दर्शन के नव तत्त्व जीव को असंख्यात प्रदेशी द्रव्य कहा गया है। धर्म, अधर्म, द्रव्यों के भी इतने ही प्रदेश हैं। आकाश के अनन्त प्रदेश हैं । पुद्गल संख्यात, असंख्यात (Countless) और अनन्त (Infinite in number) प्रदेशी है। अणु और परमाणु का प्रदेश नहीं हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दोनों पंथों के आचार्य प्रदेशों की संख्या यही मानते हैं। ८ ७२ प्रदेश (Absolute units of space) का अर्थ 1 पुद्गल के सबसे छोटे अविभागी अंश को परमाणु (Atom) कहते हैं परमाणु नित्य, सूक्ष्म और रस, गंध, वर्ण, स्पर्श से रहित है । परमाणु आकाश के जितने अंश को व्याप्त करता है उसे जैन - शास्त्रों में 'प्रदेश' कहा गया है। दूसरे शब्दों में, जितना आकाश अविभाज्य पुद्गल परमाणु से व्याप्त किया जाता है, उतनी जगह को प्रदेश कहा जाता है। वे प्रदेश समस्त परमाणु और सूक्ष्म स्कन्ध ( अणु-समूह ) अवकाश (स्थान) देने के लिए समर्थ हैं। प्रदेश के दूसरे अंश की कल्पना नहीं की जा सकती । जैन - सिद्धान्त में धर्म, अधर्म और जीव द्रव्य में असंख्यात; काल में अनन्त पुद्गल में संख्यात, असंख्यात और अनन्त ; उसी तरह काल में एक प्रदेश माना गया है। पुद्गल द्रव्य के प्रदेश पुद्गल स्कन्ध से अलग हो सकते हैं इसिलिए पुद्गल के सूक्ष्म अंश को भी अवयव कहा जाता है। पुद्गल द्रव्य के अलावा अन्य द्रव्यों के सूक्ष्म अंश अपने स्कन्ध से अलग नहीं हो सकते। इसलिए अन्य द्रव्यों के सूक्ष्म अंश को प्रदेश कहा जाता है। धर्म, अधर्म, आकाश, काल और मुक्त जीव हमेशा एक ही अवस्था में रहते हैं। इसलिए इस प्रदेश में अस्थिरता नहीं होती। पुद्गल द्रव्य के परमाणु और स्कन्ध अस्थिर, उसी तरह अन्तिम महास्कंध स्थिर और अस्थिर दोनों होते हैं । जीवद्रव्य अखण्ड होने पर भी असंख्यात प्रदेशी है। जैन दर्शन की मान्यता है कि जिस प्रकार गुड़ पर खूब धूल आकर इकट्ठी होती है, उसी प्रकार प्रत्येक आत्मा के प्रदेश के साथ अनंतानंत ज्ञानावरण आदि कर्मों के प्रदेशों का संबंध होता है। धर्मास्तिकाय तथा Positive energy, medium of motion of souls, matter and energies. अजीव पदार्थों के पाँच भेद हैं (३) आकाशास्तिकाय, (४) काल तथा ( ५ ) अधर्म प्रथमतः विचारणीय हैं। Jain Education International - अधर्मास्तिकाय Negative energy, medium of rest of souls, matter and energies. (१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय । इनमें से धर्म और For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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