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जैन-दर्शन के नव तत्त्व इन छह द्रव्यों में से पाँच अस्तिकाय द्रव्य हैं। वे हैं - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय। इस सब को मिलाकर पंचास्तिकाय कहते हैं।
धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये चार द्रव्य अजीव तथा अस्तिकाय
द्रव्य के लक्षण अजीव तत्त्व में छह द्रव्यों का समावेश है। परन्तु उसके पूर्व द्रव्य के संबंध में जानना आवश्यक है । इसलिए प्रथमतः उसका विचार करेंगे।
आचार्य भट्टाकलंकदेव ने तत्त्वार्थ-राजतार्तिक में द्रव्य का लक्षण इस प्रकार किया है - 'जो सत् है, वह द्रव्य है।'' सत् अर्थात् जो इन्द्रियग्राह्य अथवा अतीन्द्रिय पदार्थ, बाहय और अभ्यन्तर निमित्त की अपेक्षा से उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को प्राप्त होता है। तत्त्वार्थसूत्र में भी 'सत्' का यही लक्षण किया गया है ।
जिसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों हैं, वह 'सत्' है। द्रव्य गुण-पर्याय के आश्रित होता है ऐसा सर्वज्ञों ने कहा है। दुनिया के चेतन या जड़ कोई भी पदार्थ इस त्रयात्मक परिवर्तन-चक्र से बाहर नहीं हैं। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये द्रव्य अनादिसिद्ध और मौलिक हैं।
_ 'सत्' की व्याख्या विभिन्न दर्शनों में इस प्रकार की गई है :(अ) वेदान्त-दर्शन - सम्पूर्ण सत् पदार्थ (ब्रह्म) को ध्रुव (नित्य) मानता है। (आ) बौद्ध-दर्शन - सत् पदार्थ को निरन्वयक्षणिक (केवल उत्पाद-विनाशशील) मानता है। (इ) सांख्य-दर्शन - चेतन तत्त्वरूप सत् को केवल ध्रुव - कूटस्थनित्य और प्रकृति
तत्त्वरूप सत् को परिणामी नित्य (नित्यानित्य) मानता है। (ई) न्याय -वैशेषिक दर्शन - अनेक सत् पदार्थों में से परमाणु, काल, आत्मा आदि कुछ सत् तत्त्वों को कूटस्थ नित्य मानता है और घट, पट आदि कुछ तत्त्वों को केवल उत्पादव्ययशील (अनित्य) मानता है। परन्तु जैन-दर्शन में 'सत्' की व्याख्या अलग प्रकार से की गई है जो उमास्वातीजी के तत्त्वार्थसूत्र के पाँचवें अध्याय के तीसवें सूत्र में है।
जैन-दर्शन मानता है कि जो वस्तु सत् है, वह केवल कूटस्थनित्य या केवल निरन्वय-विनाशी नहीं हो सकती। उसका कोई अंश कूटस्थनित्य और कुछ पारिणामिकनित्य भी नहीं हो सकता। न ही उसका कोई भाग नित्य और कोई केवल अनित्य हो सकता है। जैन-दर्शन के अनुसार चेतन तथा जड़, मूर्त तथा अमूर्त, सूक्ष्म तथा स्थूल, सभी सत् वस्तुएँ उत्पाद, व्यय और धौव्य रूप से त्रिरूप
हैं।
प्रत्येक वस्तु में दो अंश हैं - एक अंश ऐसा है जो तीनों कालों में शाश्वत है। दूसरा अंश सदैव अशाश्वत है। शाश्वत अंश के कारण प्रत्येक वस्तु
ध्रौव्यात्मक (स्थिर) होती है और अशाश्वत होने के कारण उत्पादव्ययात्मक Jain Education International For Private & Personal Use Only
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