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________________ २२ जैन-दर्शन के नव तत्त्व जीव के भाव तत्त्वार्थसूत्र में औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक-जीव के पाँच भाव बताए गए हैं।३५ ____ आत्मा के सारे पर्याय (भित्र-भित्र अवस्थाएँ) एक जैसे नहीं होते। कुछ पर्यायों की इन भित्र-भित्र अवस्थाओं को ही भाव कहते हैं अथवा भावबद्ध कर्म की या कर्मबद्ध जीव की विशेषावस्था है। इन पाँच भावों की व्याख्या इस प्रकार की (१) औपशमिक भाव - पूर्वबद्ध कर्म की उपशान्त अवस्था उपशम भाव है। उपशम एक प्रकार की आत्मशुद्धि है। बद्ध कर्म की उपशान्त अवस्था-विशेष को औपशमिक भाव कहते हैं। जैसे - फिटकरी के संयोग से पानी में विद्यमान मिट्टी और कचरा नीचे बैट जाता है। गन्दा पानी पात्र में पहले से ही होता है और बाद में फिटकरी के संयोग से कचरा नीचे बैठता है तथा पानी कुछ मात्रा में शुद्ध होता है उसी प्रकार कर्म-मल से दूषित हुआ आत्मा कुछ प्रमाण में शुद्ध होता है। (२) क्षायिक भाव - जिसमें कर्म का संपूर्ण क्षय होता है उसे क्षायिक भाव कहते हैं। इसमें आत्मा की परम विशुद्धि होती है। उदाहरणार्थ-पानी में विद्यमान मिट्टी और कचरा पूर्णतया नष्ट हो जाता है। (३) क्षायोपशमिक भाव - कुछ कमों के क्षय से और कुछ कमों के उपशम से जिस भाव का निर्माण होता है, उसे क्षायोपशमिक भाव कहते हैं। क्षयोपशम एक प्रकार की आत्मिक शुद्धि है। जैसे - पानी की स्वच्छता नष्ट करने वाले मिट्टी के भारी कण नीचे बैठते हैं और कुछ हलकी मिट्टी के कण पानी में मिले रहते हैं। इस तरह पानी में कुछ प्रमाण में शुद्धता और कुछ प्रमाण में अशुद्धता रहती है। उसी प्रकार आत्मा के कुछ कमों की शुद्धि होने से कर्ममालिन्य कुछ प्रमाण में कम होता है। (४) औदयिक भाव - जो भाव कर्म के उदय से निर्मित होता है, उसे औदयिक भाव कहते हैं। उदय एक प्रकार का आत्मिक मालिन्य है। कर्म फल देता है तत्क्षण ये भाव होते हैं। (५) पारिणामिक भाव - द्रव्य के स्वाभाविक स्वरूप के परिणाम को पारिणामिक भाव कहते हैं। सारे कर्म परिणमन करते हैं। अर्थात् अवस्थान्तरित होते हैं। इसे कर्म की पारिणामिक अवस्था कहते हैं। बुद्ध कर्म की पारिणामिक अवस्था में जीव में उत्पन्न विशेष अवस्था को पारिमाणिक भाव कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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