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________________ १९ जैन दर्शन के नव तत्त्व (अ) ज्ञान के पाँच प्रकार :- (१) मतिज्ञान ( २ ) श्रुतज्ञान (३) अवधिज्ञान ( ४ ) मनः पर्याय ज्ञान (५) केवलज्ञान । (ब) अज्ञान के तीन प्रकार : (१) मति अज्ञान (२) श्रुत अज्ञान (३) विभंग अज्ञान । ( स ) दर्शन के चार प्रकार :- (१) चक्षुदर्शन ( २ ) अचक्षुदर्शन (३) अवधिदर्शन ( ४ ) केवलदर्शन । २३ ' उपयोग' के बारह प्रकारों में से 'अ' विभाग अर्थात् पाँच प्रकार का सम्यक् ज्ञान, 'ब' विभाग अर्थात् तीन प्रकार का अज्ञान - साकार उपयोग हैं। 'स' विभाग अर्थात् चार प्रकार का दर्शन अनाकार उपयोग है। उपयोग के उक्त बारह प्रकार जीव के लक्षण हैं।२४ लक्षण और उपलक्षण में भेद यह है कि जो गुणधर्म प्रत्येक लक्ष्य में सर्वात्मभाव से तीनों ही कालों में होता है उसे लक्षण कहते हैं I उदाहरणार्थ अग्नि में रहने वाली उष्णता । जो गुणधर्म कुछ लक्ष्यों में होता है और कुछ लक्ष्यों में नहीं होता, कभी होता है तो कभी नहीं होता, जो स्वभावसिद्ध नहीं होता उसे उपलक्षण कहते हैं । यथा - अग्नि और धूम | जीव तत्त्व को छोड़कर अन्य समस्त भाव आत्मा के उपलक्षण हैं । 'उपयोग' जीव का अबाधित लक्षण है। उपयोग जीव के अलावा किसी भी द्रव्य अथवा तत्त्व में नहीं रहता । जीव को भिन्न समझने के लिए उपयोग को जीव का २५ - लक्षण बताया गया आगम - साहित्य में जगह-जगह जीव का लक्षण 'उपयोग' ही बताया गया है। जिसे जीव, आत्मा अथवा चैतन्य कहते हैं वह अनादि, सिद्ध तथा स्वतंत्र द्रव्य है। जीव के अरूपी होने से इंद्रियों द्वारा उसका ज्ञान नहीं होता । परन्तु साधारण जिज्ञासु को आत्मा की पहचान कराने के लिए “ उपयोगो लक्षणम्" यह लक्षण किया गया है । संसार जड़ और चेतन पदार्थो का मिश्रण है । उसमें से जड़ और चेतन का विवेकपूर्वक निश्चय उपयोग से ही हो सकता है क्योंकि उपयोग कम-ज्यादा प्रमाण में हर एक आत्मा में होता ही है। जिसमें उपयोग नहीं होता, वह जड़ है । उपयोग के उपर्युक्त भेदों को इस प्रकार प्रदर्शित किया जा सकता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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