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________________ ४२७ जैन-दर्शन के नव तत्त्व आस्रव से आत्मा की ओर आए हुए कर्म-परमाणु आत्म-प्रदेश के साथ नीर-क्षीरवत् मिल जाते हैं और उससे कर्म बंध होता है। जिस प्रकार का कर्म होगा, उसी प्रकार का बंध होता है। पुराने बंध के कारण नया आस्रव और नए आस्रव से पुनः बंध यह परम्परा चलती रहती है। बंधे हुए कर्म विशिष्ट काल-मर्यादा के होते हैं और वे अपना फल देकर नष्ट होते हैं। उस दृष्टि से कर्मचेतना और कर्म फल चेतना का वर्णन विशेष रूप से किया गया है। उपनिषदों में 'बंध' तत्त्व की अस्पष्ट कल्पना ही मिलती है, परंतु तात्त्विक दृष्टि से उस पर विचार जैन दर्शन में ही किया गया है। 'गीता' जैसे तात्त्विक ग्रंथ में यह अवधारणा बार-बार दिखाई देती है। इसमें जैन तत्त्वज्ञान करणभूत रहा होगा। ___'गीता' के अठारहवें अध्याय में 'बंध' यह जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द भी मिलता है। उसमें कहा गया है कि प्रवृत्ति यानि किसी क्रिया को करना और निवृत्ति यानि किसी क्रिया को न करना। 'कार्य' यानि कौन-सा कृत्य करने योग्य है और अकार्य अर्थात् कौन-सा कृत्य करना योग्य नहीं है, किस बात से डरना और किससे नहीं डरना तथा बंध और मोक्ष किसमें है, यह जो बुद्धि जानती है, वही बुद्धि सात्विक है।२७ । इस प्रकार 'गीता' में भी कों के कारण बंधन होता है, यह अवधारणा जैन दर्शन के समान स्पष्ट दिखाई देती है। आत्मा के साथ कर्म का मिल जाना यह दूध और पानी के मिश्रण के समान है। इसे ही 'बंध' कहते हैं। जैन तत्त्वज्ञान में कर्म-सिद्धांत का यह वैशिष्ट्य है। 'जैसी करनी, वैसी भरनी' यह कहावत जैन कर्म-सिद्धांत पर पूर्णतया लागू है। जैन तत्त्वज्ञान में अपना कर्म ही सारी बातों के लिए जिम्मेदार है, ऐसा माना जाता है। यहाँ कर्ता के रूप में ईश्वर को स्थान नही। प्रत्येक व्यक्ति अपनी मन-वचन-काया रूपी कृति से अलग-अलग कर्म बांध लेता है। सदाचरण से उस कर्म की शक्ति और स्थिति में कम-ज्यादा का अंतर पड़ता है। धार्मिक आचरण, सदाचार और तपश्चरण से कर्म नष्ट हो सकते हैं। इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति के लिए उत्तम प्रवृत्ति करना आवश्यक है। इस कर्म सिद्धांत में व्यक्ति अपना भाग्य बनाने में स्वतंत्र है, और स्वयं किए हुए कर्म का फल भोगे बिना उसे कोई चारा नहीं है। कर्म के उदय काल में ज्ञान-भावना से आत्म-स्वरूप में स्थिर रहा गया, तो नया बंध नहीं होता। संसार में रहकर भी निर्लेप रहने का मार्ग अर्थात कर्म-फल के उदय काल में अप्रमादी रहकर ज्ञान-भावना से उस फल की ओर देखना यह है। कर्म के फल जब प्राप्त होते है, तब व्यक्ति हर्ष-विषाद में रममाण होता है। क्या जन्म या क्या मृत्यु, क्या ऐश्वर्य या क्या दरिद्रता, कर्म के ही फल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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