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________________ १६ जैन-दर्शन के नव तत्त्व (छा०७-३-१) तेजोबिन्दु उपनिषद् में मन को ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है। (तेजोबिन्दु ५-१८-१०८) (६) प्रज्ञात्मा-प्रज्ञानात्मा-विज्ञानात्मा :- इन्द्रिय और मन दोनों प्रज्ञा के बिना सर्वथा निरर्थक हैं। इसलिए प्रज्ञा का महत्त्व इन्द्रिय और मन से अधिक है। अतः कुछ प्रज्ञा को आत्मा मानते थे। प्रज्ञात्मा, प्रज्ञानात्मा और विज्ञानात्मा शब्द समानार्थक हैं। इसी अर्थ को लेकर आत्मा को प्रज्ञात्मा, प्रज्ञानात्मा और विज्ञानात्मा माना गया है। उपर्युक्त मान्यताओं में आत्मा को भौतिक तत्त्व माना गया। उसके बाद ऐसा विचार-प्रवाह प्रारम्भ हुआ कि आत्मा एक अभौतिक तत्त्व है। तत्त्वशोधकों का मत “आत्मा मौलिक रूप से चैतन्यतत्त्व है" इसकी ओर धीरे-धीरे झुकने लगा। बौद्ध दर्शन में ऊपर निर्दिष्ट भेदों को माना गया है। (७) आनन्दात्मा :- मनुष्य के अनुभव के दो रूप हैं - (१) ज्ञानानुभव तथा (२) वेदनानुभव। ज्ञान का संबंध जानने से और वेदना का संबंध भोगने से है। वेदना के दो प्रकार हैं- (१) अनुकूल तथा (२) प्रतिकूल। प्रतिकूल वेदना किसी को अच्छी नहीं लगती परंतु अनुकूल वेदना सब को अच्छी लगती है। अनुकूल वेदना का दूसरा नाम सुख है और सुख की पराकाष्ठा को “आनन्द" की संज्ञा दी गई है। बाह्य पदाथों के भोग से सर्वथा निरपेक्ष अनुकूल वेदना आत्मा का स्वरूप है। तत्त्ववेत्ताओं ने उसे ही आत्मा कहा (८) चिदात्मा (ब्रह्मात्मा) :- आनन्दात्मा के बाद 'आत्मा चैतन्यमय है' यह कल्पना आगे आई। चिदात्मा और ब्रह्मात्मा एक ही तत्त्व के दो नाम हैं। उसी प्रकार ब्रह्म और आत्मा भी अलग-अलग नहीं हैं। एक ही तत्त्व के दो नाम हैं। इस प्रकार चिन्तकों ने अभौतिक तत्त्व के रूप में आत्मा का आविष्कार किया। उक्त प्रकार से भूत से लेकर चेतन तक आत्म-विचारणा की उत्क्रान्ति का इतिहास रचा गया है। इस चिदात्मा को अजर, अक्षर, अमर, अव्यय, अज, नित्य, ध्रुव, शाश्वत और अनन्त माना गया है। कठोपनिषद् (१-३-१५) में कहा गया है कि अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अव्यय, नित्य, अगन्ध, अनादि, अनन्त तथा ध्रुव आत्मा का ज्ञान प्राप्त करके मनुष्य मृत्यु के मुख से मुक्त हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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