SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 408
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८१ जैन-दर्शन के नव तत्त्व ७) पारंगत जिन्होंने अनादि, अनंत चार गति रूप दीर्घ संसार-अरण्य को पार किया है, वे पारंगत हैं। ८) परिनिवृत्त : सब प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक क्लेशों से जो रहित हैं, वे परिनिवृत्त हैं।७८ सिद्धात्मा का स्वरूप : सुधर्मा स्वामी ने अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहा, "हे जम्बू! मुक्तात्मा (सिद्धात्मा) का स्वरूप दिखाने के लिए कोई भी शब्द नहीं हैं, तर्क की भी वहाँ गति नहीं है, बुद्धि वहाँ तक नहीं पहुँचती है, उनकी कोई उपमा भी नहीं है, हे शिष्य! सिद्धात्मा सकल कर्मरहित संपूर्ण ज्ञानमय दशा में विराजमान हैं। निर्वाण या मुक्ति आत्मा की शून्यावस्था नहीं, परंतु उस परम आनंद में आत्मा का प्रवेश है, जिसका अंत नही। इसमें शरीर का वियोग तो है, परंतु चेतना का अभाव नहीं है। सिद्धात्मा सब मनोवेगों से रहित होने से आचरणशून्य होता है। सिद्धात्मा आकार में दीर्घ या हृस्व आदि नहीं है, वह काला, सफेद, लाल, पीला, या नीला नहीं हैं। वह कडुआ नहीं, तीखा नहीं, खट्टा नहीं, मीठा नहीं, ठंडा नहीं, गर्म नहीं। वह गोल नहीं, त्रिकोण नहीं, चौरस नहीं, वृत्ताकार नही। वह सुंगधित नहीं, दुर्गधित नहीं, भारी नहीं, हल्का नहीं, स्निग्ध नहीं, रूक्ष नहीं। वह पुनर्जन्म लेनेवाला नहीं, आसक्त नहीं, स्त्री नहीं, पुरुष नहीं, नपुंसक नहीं। वह ज्ञाता है, परिज्ञाता है। उसके लिए कोई भी उपमा नहीं, वह अरूपी है, इसलिए उसका वर्णन करना अशक्य है। उसके वर्णन के लिए कोई भी शब्द समर्थ नहीं हैं। वह शब्दरूप, वर्ण रूप, गंधरूप, रसरूप और स्पर्शरूप नहीं है।' ___ मुक्त-अवस्था कर्म और कामना से मुक्त अवस्था है। यह ऐसी अवस्था है कि उसमें कोई भी परिवर्तन नहीं होता। यह एक रागरहित और वर्णातीत शांति की अवस्था है, वीतराग दशा है। इस अवस्था में भूतकाल के कर्म नष्ट हो जाते है। वर्तमानकाल में कर्म का बंध नहीं होता और भविष्यत् काल में किसी भी प्रकार का कर्म नहीं होता है। इस दशा में मात्र शुद्ध आत्मा ही विद्यमान रहता है। शरीर आदि नहीं होते हैं। मुक्त आत्मा शरीर और शरीरजन्य क्रिया जन्म, जरा, मृत्यु आदि से रहित होता है। वह सत्-चित्-आनंदमय होता है। सिद्धों का सुख : सुख दो प्रकार का है - १) लौकिक सुख और २) अलौकिक सुख। लौकिक सुख विषययुक्त होने से वह दुःख में परिवर्तित हो जाता है, परंतु अलौकिक सुख विषयरहित और इन्द्रियातीत होने से उसमें सिर्फ सुख ही सुख है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy