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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
माध्यस्थभाव, शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र, धर्म और स्वभाव-आराधना - ये सारे एकार्थवाची शब्द हैं।१३६
सम्यक् चारित्र की आराधना करने से दर्शन, ज्ञान और तप इन तीनों की भी आराधना होती है, परंतु दर्शन आदि की आराधना से चारित्र की आराधना होती ही है, ऐसा नहीं।
. चारित्ररहित ज्ञान और सम्यक्त्वरहित लिंग (वेश), संयमहीन तप निरर्थक
है।१३७
जो मनुष्य चारित्रहीन है वह जीवित होकर भी मृतवत है। सचमुच चारित्र ही जीवन है। जो चारित्र को नष्ट करता है, उसका सभी कुछ नष्ट हो जाता हैं। एक अंग्रेजी कहावत है
If wealth is lost, nothing is lost, If health is lost, something is lost, If character is lost, everything is lost.
मानव का धन नष्ट हुआ, तो उसका कुछ भी नष्ट नहीं हुआ, क्योंकि धन पुनः प्राप्त किया जा सकता है। अगर उसका आरोग्य नष्ट हुआ तो थोड़ा बहुत नष्ट हुआ है, परंतु अगर मानव ने चारित्र ही गँवा दिया, तो उसने सर्वस्व . गँवा दिया है। विश्व में असली जीवन चारित्रशील व्यक्ति ही जीते हैं। भोगी, स्वार्थी और विषयलंपट व्यक्ति का जीवन निरर्थक है। सम्यक्-चारित्र को प्राप्त करने के लिए शरीरबल, बुद्धिबल और मनोबल की आवश्कता है।
आत्मा के जो भाव है उन्हें ही ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप कहा गया है। चारित्ररूप धर्म के कारण आत्मा अनंत सुख प्राप्त करता है। यही अनंत सुख जीव का लक्ष्य है।
जो जाना जाता है, वह "ज्ञान" है। जो देखा जाता है या माना जाता है, उसे "दर्शन" कहा है और जो किया जाता है वह चारित्र है। ज्ञान और दर्शन के संयोग से चारित्र तैयार होता है। जीव के ये ज्ञानादि तीनों भाव अक्षय और शाश्वत होते हैं। सम्यक् चारित्र का आचरण करने वाला जीव चारित्र के कारण शुद्ध आत्म तत्त्व को प्राप्त करता है। वह धीर, वीर पुरुष अक्षय सुख और मोक्ष प्राप्त करता है।
संसार के कारणरूप कर्म नष्ट करने हेतु श्रद्धावान और ज्ञानवान आत्मा पाप में ले जानेवाले कर्म से निवृत्त होता है, यही सम्यक-चारित्र है। पाप का सर्वथा त्याग अथवा अशुद्ध आचरण का त्याग ही चारित्र है।
सम्यक्-चारित्र के अहिंसा आदि पाँच व्रत हैं। वे इस प्रकार हैं - १) अहिंसा २) सत्य ३) अस्तेय ४) ब्रह्मचर्य और ५) अपरिग्रह।
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