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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
पहले दो ज्ञान, अर्थात मतिज्ञान और श्रृतज्ञान परोक्ष हैं, क्योंकि ये इन्द्रियाँ, मन, उपदेश आदि की सहायता से होते हैं। बाकी के तीन ज्ञान-अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये प्रत्यक्ष ज्ञान हैं, क्योंकि वे इन्द्रियाँ आदि की सहायता के बिना केवल आत्मिक शक्ति से होते है। इनमें से अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान ये दोनों द्रव्य-क्षेत्र-काल आदि की सीमा होने से विकलपारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं और केवलज्ञान यह अनन्त होने से सकलपारमार्थिक प्रत्यक्ष है। सम्यग्ज्ञान के दोषों का स्वरूप : संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय ये ज्ञान के तीन दोष हैं। १) संशय : “विरुद्धानेक कोटिस्पशी ज्ञानं संशयः अर्थात् परस्पर विरुद्ध दो कोटियों को स्पर्श करनेवाले ज्ञान को 'संशय' कहते हैं, जैसे 'यह पुरुष है या पेड़ का तना ?' ऐसा विकल्पात्मक ज्ञान । यहाँ पुरुष और पेड़ के तनों में कुछ समान धर्म दिखाई देने से ज्ञान में संशय रहता है। " आत्मा शरीर रूप है या ज्ञान रूप है ?" इस प्रकार के विकल्प को संशय कहते हैं। २) विपर्यय : "विरुद्धैक कोटिस्पी ज्ञानं विपर्ययः अर्थात् उपरोक्त दो पक्षों में से एक विरुद्ध पक्ष को स्पर्श करने वाले ज्ञान को 'विपर्यय' कहते हैं। जैरो “यह पुरुष (उसे पुरुष होते हुए भी) नहीं, पेड़ का तना है ", या। " आत्मा शरीर ही है।" यहाँ संशय के समान दोलायमान अनिर्णयात्मक स्थिति नहीं होती। निर्णय तो होता है, परंतु वह निर्णय विपरीत पक्ष की ओर होता है जैसे अंधेरे में रस्सी को सर्प समझ लेना। ३) अनध्यवसाय : किमितिमात्रमनध्यवसायः अर्थात् “यह कुछ तो भी है ऐसे अनिर्णयात्मक ज्ञान को अनध्यवसाय कहते हैं। जैसे चलते समय पैरों के नीचे कुछ तो भी है ऐसा ज्ञान अथवा आत्मा शरीर, कर्म, राग, ज्ञान कुछ तो भी होगा। यह ज्ञान दो से अधिक अनेक विकल्पों को स्पर्श करता है, इसलिए संशय नहीं और विपरीत पक्ष का निर्णय न होने से विपर्यय भी नहीं। ये ज्ञान के तीन दोष हैं।
___डॉ. राधाकृष्णन् ने भारतीय दर्शन के वैशेषिक दर्शन की ज्ञानमीमांसा की चर्चा करते समय मिथ्याज्ञान के चार भेद बताए हैं। १) संशय २) विपर्यय, ३) अनध्यवसाय और ४) स्वप्न। जैन दर्शन ने उनमें से तीन भेद माने हैं, चौथा नहीं। स्वप्न का अंतर्भाव 'संशय' में किया है।२९. सम्यक् ज्ञान और मिथ्याज्ञान : जो यस्तु के स्वभाव को योग्य रीति से नहीं जानता अथवा विपरीत रूप से जानता है, यह मिथ्याज्ञान है। इसके विपरीत का ज्ञान 'सम्यग्ज्ञान' है।
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