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________________ नवम अध्याय मोक्ष तत्त्व मोक्ष नवतत्त्वों में अन्तिम व अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। नवतत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करना मोक्षप्राप्ति के लिए अत्यावश्यक है । प्राणिमात्र का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष ही है और उसी के लिए उनके सब प्रयत्न चलते हैं; परन्तु मोक्ष कैसे प्राप्त होता है इसका ज्ञान सब को होता ही है, ऐसा नहीं कहा जा सकता, इसीलिए मोक्ष मार्ग का विवेचन आवश्यक है । मोक्ष का अर्थ कर्म के बंधन से मुक्ति प्राप्त करना है। आत्मा का विशुद्ध स्वरूप ही मोक्ष है। इस प्रकार की विशुद्ध दशा में आत्मा या जीव कर्मसंयोग से संपूर्णतः मुक्त हुआ होता है। इसीलिए कहा गया है कि जीव और कर्म का संपूर्ण वियोग ही मोक्ष है अर्थात् संपूर्ण कर्म का क्षय होना ही मोक्ष है ।' मोक्ष तत्त्व यह बंध तत्त्व के पूर्णतया विपरित है। जिस प्रकार कारागृह के संदर्भ में ही स्वतंत्रता का अर्थ ध्यान में आता है उसी प्रकार बंध के संदर्भ में ही उसके प्रतिपक्षी मोक्ष का अर्थ स्पष्ट होता है । मिथ्यादर्शन आदि बंध के कारण हैं । उनका निरोध ( संवर) करने पर नए कर्मों के बंध का अभाव होकर निर्जरा के द्वारा पूर्वोपार्जित कर्मों का विनाश होता है, तब सब प्रकार के कर्मों से हमेशा के लिए आत्यन्तिक या पूर्ण मुक्ति प्राप्त होती है । यही मोक्ष है। बंध के कारणों का अभाव होने पर एवं निर्जरा के द्वारा कर्मों का क्षय होना ही मोक्ष है बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्याम् । ( तत्त्वार्थसूत्र १० / २) I Jain Education International जैन दर्शन में मोक्ष के दो कारण माने गए हैं, वे हैं- संवर और निर्जरा । संवर से आस्त्रव अर्थात् कर्म का आगमन रुक जाता है, अर्थात् नए कर्मों का बंध नहीं होता तथा निर्जरा से पूर्व बद्ध कर्म नष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार कर्मों के बंधन से मुक्त होना यही मोक्ष है । मुक्ति, निर्वाण या परमशांति आत्मा के विशुद्ध स्वरूप को ही मोक्ष, कहते हैं । अतः आत्मा का शुद्ध स्वरूप ही मोक्ष है। बंध का अभाव और घाति कर्म के क्षय से केवलज्ञान उत्पन्न होने पर और शेष सब कर्मों का क्षय होने पर मोक्ष प्राप्त होता है। बंध का वियोग ही मोक्ष हैं। दूसरे शब्दों में कर्मों का अभाव ही मोक्ष है ।' शुद्ध आत्म-स्वरूप में स्थिर होने की अवस्था ही मोक्ष की अवस्था है । परंतु संसार की स्थिति इससे भिन्न है। जीव जब तक बाह्य पदार्थों की आसक्ति का त्याग नहीं करता है, तब तक आत्मा अपना शुद्ध स्वरूप प्रकट नहीं कर सकता अर्थात् आत्मा बंधन से मुक्त नहीं हो सकता । - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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