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________________ ३२१ जैन-दर्शन के नव तत्त्व आदि की जानकारी मिलती है और अंतिम गणधर में निर्वाण की चर्चा के अंतर्गत कर्म के मूर्त-अमूर्त आकार का विवेचन है। कर्मफल निष्पत्ति में बौद्ध, सांख्य और जैन दार्शनिक ईश्वर को कारण नहीं मानते। वे जीव के राग, द्वेष, मोह आदि भावों को तथा मन, वचन एवं काय योग की प्रवृत्ति को ही कर्म और कर्मफल निष्पत्ति का हेतु मानते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि इस दुनिया का वैचित्र्य कर्मकृत है और संसार में जीव का आवागमन भी कर्मकृत है। इस प्रकार भारतीय दर्शनों में चार्वाक के अलावा अन्य सब दार्शनिकों ने किसी न किसी स्वरूप में कर्म के अस्तित्व को स्वीकार किया है, ऐसा दिखाई देता है। जैन दर्शन में कहा है कि विश्व की सारी आत्माएँ समान हैं। यह समानता आत्मस्वरूप की समानता के कारण है। पूर्णतः कर्म-मुक्त सिद्धात्मा की विशुद्ध आत्मज्योति हो, या निगोद के अनन्त अंधःकार में भटकने वाली आत्मा की मंद आत्मज्योति हो, दोनों के आत्मस्वरूप में कुछ भी फर्क नहीं है। ___ आत्मा की जो अनंत शक्ति सिद्ध व्यक्ति में है, वही अनंत शक्ति संसार में परिभ्रमण करने वाली आत्मा में भी है। सब आत्माएँ अनंत-शक्ति से युक्त हैं। आन्तरिक दृष्टि से उनमें कुछ भी फर्क नहीं है। अन्तर उस शक्ति की अभिव्यक्ति के कारण है। अब प्रश्न यह है कि अगर आत्मा में समानता और एकरूपता है, तो उसमें विषमता और अनेकरूपता क्यों दिखाई देती है? सिद्ध और संसारी आत्मा के विकास में इतना अन्तर क्यों? सिद्ध की बात छोड़ भी दें तो मानव-मानव में भी बहुत अंतर नजर आता है। मनुष्य और पशु-पक्षियों के जीवन में भी अंतर दिखाई देता है। कुछ व्यक्ति विकास के अत्युच्च शिखर तक पहुँचते हैं, तो कुछ व्यक्ति पतन के महागर्त में भयंकर वेदना सहन करते हुए दिखाई देते हैं। दो व्यक्तियों के जीवन में इतना अन्तर क्यों हैं? इसका मूल कारण कर्म ही है। आत्मशक्ति सब में एक जैसी है, परन्तु कर्म के आवरण के कारण प्रत्येक आत्मा के विकास में अन्तर है।" व्यक्ति जो कुछ करता है, उसका फल उसे निश्चित मिलता है। कर्म करने के संबंध में व्यक्ति स्वतंत्र है, उसकी इच्छा हो तो वह उससे बच भी सकता है, परन्तु कर्म से बद्ध होने पर कर्म के फल से बचना संभव नहीं। किए हुए कर्म का फल तो निश्चित भोगना ही पड़ता है। कर्म का फल जल्दी या देरी से, मिले बिना नहीं रहता। कभी इस जन्म में नहीं तो दूसरे किसी जन्म में भी फल भोगना पड़ता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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