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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
अपयश-अपकीर्ति, १०) अनिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरूषार्थ, पराक्रम, ११) हीन स्वर, १२) दीन स्वर, १३) अनिष्ट स्वर और १४) अकान्त स्वर-अप्रिय
शब्द६०
७) गोत्र कर्म :
जिस कर्म के उदय से प्रतिष्ठित या अप्रतिष्ठित कुल में जन्म होता है, वह गोत्र कर्म है अथवा जिससे उच्च-नीच अवस्था प्राप्त होती है, उसे 'गोत्र कर्म' कहते हैं। गोत्र कर्म का स्वभाव कुम्हार के समान है। जिस प्रकार कुंभकार छोटे बड़े अनेक प्रकार के कुंभ बनाता है, उसी प्रकार यह कर्म उच्च-नीच परिवेश प्राप्त करा देता हैं।६२ गोत्र कर्म दो प्रकार का है -
१. उच्च गोत्र और २. नीच गोत्र६३ उच्च गोत्र : इस गोत्र का बंध निम्नलिखित आठ बातों का अभिमान नहीं करने से होता है। (१) जाति, (२) कुल, (३) बल, (४) रूप, (५) तपस्या, (६) श्रुतज्ञान, (७) लाभ और (८) ऐश्वर्य। उच्च गोत्र का फल नीचे लिखे आठ प्रकार से मिलता है। (१) उत्तम जाति प्राप्त होना, (२) उत्तम कुल प्राप्त होना, (३) विशिष्ट बल की प्राप्ति होना, (४) विशिष्ट रूप की प्राप्ति होना, (५) तप में शूर-वीरता आना, (६) श्रुति में विद्वान् होना, (७) इच्छित वस्तु का लाभ होना और (८) विशिष्ट ऐश्वर्य की प्राप्ति होना। नीच गोत्र : यह गोत्र कर्म आठ प्रकार से बांधा जाता है। उच्च गोत्र के बंध के कारणों के विपरीत आठ प्रकार का अभिमान करने से नीच गोत्र का बंध होता है अर्थात् तप, ज्ञानादि आठ बातों का अभिमान करने से नीच गोत्र का बंध होता है। इनका फल भी उच्च गोत्र के विपरीत आठ प्रकार से भोगा जाता है। उच्च गोत्र के फलस्वरूप जो जाति, कुल बल आदि की उच्चता प्राप्त होती है, उनकी ही हीनता नीच गोत्र के
फलस्वरूप प्राप्त होती है।६५ ८) अन्तराय कर्म :
दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में विध्न पैदा करने वाला कर्म 'अंतराय कर्म' है। जो दान, लाभ आदि में अंतराय (विध्न) डालता है, उसे अंतराय कर्म कहते हैं।६।।
अन्तराय कर्म का स्वभाव राजा के खजांची के समान है। जिस प्रकार राजा की इच्छा के बिना राजा का खजांची दान नहीं कर सकता, उसी प्रकार अन्तराय कर्म दान आदि देने नहीं देता।
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