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________________ २९५ जैन-दर्शन के नव तत्त्व जिसके द्वारा आत्मा को अज्ञानादि रूप फल मिलता है, वह प्रकृति है। यह 'प्रकृति' शब्द की व्युत्पत्ति है। कर्म जब आत्मा द्वारा ग्रहण किए जाते हैं, तब उनमें भिन्न-भिन्न प्रकार के जो स्वभाव उत्पन्न होते हैं। उसे ही प्रकृतिबंध कहते है। प्रत्येक कर्म की प्रकृति भिन्न-भिन्न होती है। प्रकतिबंध कर्म के स्वभाव के अनुसार होता है। प्रकति जैसी बांधी जाती है, वैसी ही उदय में आती है। उदय में आनेवाला कर्म ज्ञानावरणीय आदि किस स्वभाव का होगा, यह दिखाना ही प्रकृतिबंध है। सामान्य रूप से ग्रहण किए गए कर्म-पुद्गल का जो स्वभाव होता है उसे ही प्रकृतिबंध कहते हैं। वैसे तो प्रकृतिबंध की अनेक व्याख्याएँ हैं, परंतु उन सब का भावार्थ एक ही है।२५ २) स्थितिबंध : प्रत्येक प्रकृति की अवस्थिति काल द्वारा नापी जाती है। प्रत्येक प्रकृति एक विशिष्ट काल तक रहती है और बाद में विलीन होती है। इस प्रकार स्थितिबंध कर्म-प्रकृति के कालमान को निश्चित करता है। स्वभाव बनने पर उस स्वभाव की विशिष्ट समय तक रहने की जो मर्यादा होती है, उसे 'स्थितिबंध' कहते हैं। सामान्यतया कर्म विशेष की आत्मा के साथ रहने की जो अवधि होती है, उसे 'स्थितिबंध' कहते हैं।२६ ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का आत्म-प्रदेशों के साथ बंध होने पर जब तक वे अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते और कर्म रूप रहते हैं, उस काल-मर्यादा को भी 'स्थितिबंध' कहते है। २७ । अवस्थान-काल का नाम स्थिति है। गति से विपरीत स्थिति होती है। जितने समय तक वस्तु रहती है, वह स्थिति है। जिसका जो स्वभाव है, उससे न बदलना 'स्थिति' है। जिस प्रकार बकरी, गाय और भैंस आदि पशुओं के दूध का अपने माधुर्य-स्वभाव से च्युत न होना 'स्थिति' है, उसी प्रकार ज्ञानावरण आदि कमों का अपने स्वभाव से च्युत न होना 'स्थिति' हैं। योग के कारण से, कर्म रूप में परिणत हुए पुद्गल-स्कंध का जीव में एक रूप से रहने के काल मर्यादा को 'स्थिति' कहते हैं।२६ ऊपर की व्याख्याएँ अलग-अलग ग्रंथों में अलग-अलग रूप में दी हुई हैं, परंतु उस सब का भावार्थ एक ही है। वह है - कर्म की आत्मा के साथ रहने की अवधि 'स्थितिबंध' है। ३) अनुभाग घंध : ज्ञानावरणादि कर्म के शुभ-अशुभ रस को 'अनुभाग बंध' कहते हैं। विपाक के समय कर्म जिस प्रकार का रस देगा, उसे अनुभाग बंध कहते है। यह बंध प्रत्येक प्रकृति का अपना अपना होता है। जैसे रस को जीव बाँधता है, वैसा ही उदय में आता है। वस्तुतः स्वभाव-निर्मिति के साथ ही उसमें तीव्रता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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