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________________ . २७९ जैन-दर्शन के नव तत्त्व इस प्रकार जैन-धर्म में ज्ञान और क्रिया का समान महत्त्व है। ज्ञान के बिना क्रिया अंधी है और क्रिया के बिना ज्ञान पंगु है। इस प्रकार बाह्य और अभ्यन्तर इन दोनों तपों के समन्वय से ही मोक्षप्राप्ति होती है। तप के समस्त भेदों को निम्नांकित भेदवृक्ष से भी स्पष्ट किया जा सकता है - तप के भेद अभ्यन्तर तप बाह्य तप १-अनशन ४-रसपरित्याग २-अवमोदर्य ३-वृत्तिपरिसंख्यान ५-विविक्तशय्यासन ६-कायक्लेश प्रायाश्चित्त विनय वैयावृत्य स्वाध्याय व्युत्सर्ग ध्यान वाचना बायोपधि त्याग पृच्छना अभ्यंतरोपधि त्याग अनुप्रेक्षा आम्नाय धर्मोपदेश आलोचना ज्ञानविनय आचार्य वैयावृत्य प्रतिक्रमण दर्शनविनय उपाध्याय वैयावृत्य तदुभय चारित्रविनय तपस्वी वैयावृत्य विवेक उपचारविनय शैक्ष वैयावृत्य ग्लान वैयावृत्य गण वैयावृत्य कुल वैयावृत्य संघ वैयावृत्य साधु वैयावृत्य मनोज्ञ वैयावृत्य व्युत्सर्ग १ आर्तध्यान २ रौद्रध्यान ३ धर्मध्यान ४ शुक्लध्यान अनिष्टसंयोगज हिंसानुबन्धी इष्टवियोगज मृषानुबन्धी वेदनाजनित चौर्यानुबन्धी निदानजनित परिग्रहानुबन्धी आज्ञाविचय अपायविचय विपाकविचय संस्थानविचय पृथक्त्ववितर्क एकत्ववितर्क सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति समुच्छिन्नक्रियाऽनिवृत्ति विज्ञानयुग में ध्यान का महत्त्व आज का युग विज्ञान और प्रगति का युग है। इसलिए यह प्रश्न सहज ही उत्पन्न होता है कि एक ऐसे द्रुतगति वाले युग में क्या ध्यान-साधन की कोई ___Jain Ed.सार्थकता और उपयोगिता हो सकती है? ध्यान का बोध हमारी वैज्ञानिक प्रगति ary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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