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जैन दर्शन के नव तत्त्व
(२) विपरिणामानुप्रेक्षा वस्तु परिवर्तनशील है ऐसा विचार करके उसके प्रति आसक्ति और राग-द्वेष कम करना ।
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(३) अशुभानुप्रेक्षा संसार के अशुभ स्वरूप पर विचार करना ।
(४) अपायानुप्रेक्षा - क्रोधादि दोष और उसके कटु फल का विचार करना । ध्यान करने वाले साधु की बुद्धिपूर्वक आसक्ति समाप्त होने पर जो निर्विकल्प समाधि - प्रकट होती है, उसे शुक्ल ध्यान या रूपातीत ध्यान कहा जाता है। इसकी भी उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होने वाली चार श्रेणियाँ हैं
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प्रथम श्रेणी में अबुद्धिपूर्वक ही ज्ञान में ज्ञेय पदार्थों का और योग-प्रवृत्तियों का संक्रमण होता रहता है । द्वितीय श्रेणी में यह स्थिति नहीं रहती । तृतीय श्रेणी में रत्नदीप की ज्योति के समान निष्कम्पता रहती है। चौथी श्रेणी में श्वास-निरोध नहीं करना पड़ता, बल्कि वह अपने आप होता है और इस ध्यान से ही प्रत्यक्ष मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
जिसका शुचि गुण से संबंध है वह शुक्ल ध्यान है । जिस प्रकार वस्त्र की मलिनता दूर होने पर वह स्वच्छ होता है, उसी प्रकार निर्मलगुणयुक्त आत्म-परिणति भी शुक्ल है। कषाय-मालिन्य दूर हो जाने से इसे शुक्लता प्राप्त होती है।
जहाँ गुण अत्यंत विशुद्ध हो जाते हैं, जहाँ कर्म का क्षय और उपशम होता है और जहाँ लेश्या ( भाव या परिणाम ) भी शुक्ल होती है, उसे शुक्ल ध्यान कहते हैं
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आत्मा के शुचि-गुण के कारण इस ध्यान का नाम शुक्ल ध्यान पड़ा है 1 आगम-शास्त्र में राग आदि विकल्प से रहित स्वसंवेदनयुक्त ज्ञान को शुक्ल ध्यान कहा गया है।
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जैन-दर्शन मे ध्यान का विस्तृत चिन्तन किया गया है। पहले दो ध्यान अशुभ होने से त्याज्य हैं। धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान आत्मा के लिये हितकारक हैं और कर्ममुक्त करने वाले हैं। इसीलिए वे शुभ तथा ग्राह्य हैं।
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प्रस्तुत है
इन चार (आर्त, रौद्र, धर्म तथा शुक्ल) ध्यानों का विस्तृत विवेचन पूर्व में हो चुका है। इन चारों ध्यानों का सारांश यहाँ (१) आर्तध्यान : दुख, शोक, पीड़ा और चिन्ता से उत्पन्न हुआ वृत्तिप्रवाह । (२) रौद्रध्यान : हिंसा, असत्य, चोरी आदि पापजनक परिणामों से उत्पन्न होने वाला दुःखसंकल्प | (३) धर्म ध्यान : अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रहमचर्य, अपरिग्रह आदि शुभ भावनाओं तथा आत्मस्वरूप और आत्म-दर्शन की उत्कण्ठा से युक्त चित्तवृत्ति । (४) शुक्लध्यान : कषायरहित एवं निर्मल आत्म-दर्शन से उत्पन्न तथा सर्वथा परम विशुद्ध आत्मवृत्ति । ध्यान-साधना का मुख्य तत्त्व है 'समता' । मन जितना समभावी होगा, उतना ही स्थिर होगा। आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं
न सात्येन विना ध्यानं न ध्यानेन विना च तत् ।
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