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जैन दर्शन के नव तत्त्व
मानसिक चिन्तन चाहे किसी प्रतिज्ञा के रूप में हो या संभावित दोषों की प्रत्यालोचना के रूप में हो, यह साधना को हृदय तक पहुँचाता है । " व्युत्सर्ग- तप के दो भेद हैं (१) द्रव्य - व्युत्सर्ग और (२) भाव - व्युत्सर्ग। द्रव्य - व्युत्सर्ग के चार उपभेद हैं - (१) गण-व्युत्सर्ग, (२) शरीर - व्युत्सर्ग, (३) उपधि - व्युत्सर्ग एवं (४) भुक्तपान - व्युत्सर्ग |
भाव - व्युत्सर्ग के तीन प्रकार हैं- (१) कषाय- - व्युत्सर्ग, (२) संसार - व्युत्सर्ग और (३) कर्म - व्युत्सर्ग।
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द्रव्य - व्युत्सर्ग के चार प्रकारों का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया गया है (१) गण- व्युत्सर्ग- गण (समूह) का त्याग करना । श्रुतज्ञान और चारित्र्य की विशेष आराधना के लिए गण का त्याग कर अन्य गण में जाना अथवा एकाकी
रहना ।
( २ ) शरीर - व्युत्सर्ग- शरीर का त्याग करना । इसी का दूसरा नाम कायोत्सर्ग है / कायोत्सर्ग का मुख्य उद्देश्य दोष की विशुद्धि करना है। इस अवस्था में 'अन्नं इमं सरीरं अन्नो जीवुत्ति' अर्थात् शरीर अन्य तथा जीवात्मा अन्य है ऐसा अनुभव होना चाहिए ।
(३) उपधि-व्युत्सर्ग - संयम - साधना में मर्यादापूर्वक रखे हुए वस्त्र, पात्र आदि का त्याग करते जाना और अंत में अचेल अवस्था को प्राप्त करना ।
(४) भुक्तपान- व्युत्सर्ग खाने-पीने का त्याग करना । धीरे-धीरे उनका त्याग करते-करते ठीक समय पर सब खाने-पीने का त्याग करना भुक्तपान-व्युत्सर्ग
की साधना
है I
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भाव - व्युत्सर्ग के तीन प्रकारों का स्ष्टीकरण इस प्रकार किया गया है. (क) कषाय- व्युत्सर्ग इसका अर्थ है क्रोध, मान, माया और लोभ इन कषायों को क्षीण करना और अन्त में समस्त कषायों का क्षय करना ।
(ख) संसार - व्युत्सर्ग इसका अर्थ है नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन गतियों का त्याग करना । अर्थात् इन चार गतियों के जो सोलह कारण हैं, उनका भी त्याग करना 'संसार - व्युत्सर्ग' है । इन चार गतियों के कारण ही संसार में परिभ्रमण होता रहता है, इसलिए उनका त्याग बताया गया है।
(ग) कर्म - व्युत्सर्ग कर्मों का त्याग करना । ( १ ) ज्ञानावरण, ( २ ) दर्शनावरण, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयुष्य, (६) नाम, (७) गोत्र और (८) अन्तराय इन आठ कर्मों को नष्ट करने के अनेक उपाय शास्त्रों में बताये गये हैं। उन उपायों को आचरण में लाने पर कर्म-व्युत्सर्ग की साधना होती है । २
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इस प्रकार द्रव्य - व्युत्सर्ग और भाव व्युत्सर्ग का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है । साधक प्रथमतः द्रव्य - व्युत्सर्ग की साधना करता है। आहार, वस्त्र, पात्र आदि का ममत्व कम करता जाता है । बाद में शरीर पर होने वाले मोह को कम
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