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________________ प्रथम अध्याय प्रस्तावना आज का युग विज्ञानयुग है। इस युग में विज्ञान शीघ्र गति से आगे बढ़ रहा है। विज्ञान के नवनवीन अविष्कार विश्वशांति का आह्वान कर रहे हैं। संहारक अस्त्र-शस्त्र विद्युतगति से निर्मित हो रहे हैं । आज मानव भौतिक स्पर्धा के मैदान में तीव्र गति से दौड़ रहा है। मानव की महत्त्वाकांक्षा आज दानव के समान बढ़ रही है । परिणामतः वह मानवता को भूलकर निर्जीव यंत्र बनता चला जा रहा है। विज्ञान के तूफान के कारण धर्मरूपी दीपक तथा तत्त्वज्ञानरूपी दीपक करीब-करीब बुझने की अवस्था तक पहुँच गये हैं ऐसी परिस्थिति में आत्मशांति तथा विश्वशांति के लिए विज्ञान की उपासना के साथ तत्त्वज्ञान की उपासना भी अति आवश्यक हैं। ' आज दो खण्ड आमने-सामने के झरोखों के समान करीब आ गए हैं 1 विज्ञान मनुष्य को एकदूसरे के नजदीक लाया है, परन्तु एक-दूसरे के लिए स्नेह और सद्भाव कम हो गया है। इतना ही नहीं, मानव ही मानव का संहारक बन गया है । विज्ञान का विकास विविध शक्तियों को पार कर अणु के क्षेत्र में पहुँच चुका है। मानव जल, स्थल तथा नभ पर विजय प्राप्त कर अनन्त अन्तरिक्ष में चन्द्रमा पर पहुँच चुका है। इतना ही नहीं, अब तो मंगल तथा शुक्र ग्रह पर पहुँचने के प्रयास भी जारी हैं। 1 भौतिकता के वर्चस्व ने मानव हृदय की सुकोमल वृत्तियों, श्रद्धा, स्नेह, दया, परोपकार, नीतिमत्ता, सदाचार तथा धार्मिकता आदि को कुंठित कर दिया है। मानव के आध्यात्मिक और नैतिक जीवन का अवमूल्यन हो रहा है। विज्ञान की बढ़ती हुई उद्यम शक्ति के कारण विश्व विनाश के कगार पर आ पहुँचा है। अणु-आयुधों के कारण किसी भी क्षण विश्व का विनाश हो सकता है । ऐसी विषम परिस्थिति में आशारूपी एक ही ऐसा दीप है जो दुनियां को प्रलय रूपी अंधकार में मार्ग दिखा सकेगा। वह आशारूपी दीप है- तत्त्वज्ञान । विज्ञान के साथ अगर तत्त्वज्ञान जुड़ जाये तो विज्ञान विनाश के स्थान पर विकास की दिशा में बढ़ेगा । विज्ञान की शक्ति पर तत्त्वज्ञान का अंकुश होगा तभी विश्वभर में सुख-शांति रहेगी । तत्त्वज्ञान अमृततुल्य रसायन है। वही इस विश्व को असन्तोष और अशांति की व्याधि से मुक्त कर सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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