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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
प्रकार मिथ्यात्व आदि का अभाव होने पर आत्मा में कर्म प्रेवश नहीं कर सकता। अर्थात् नवीन कर्म का आनव नहीं होगा और आस्रव का निरोध होने पर शुभाशुभ कर्म नहीं आ सकेंगे। इसी हेतु संवर का अस्तित्त्व स्थापित हुआ?'
संवर की व्याख्याएँ -
संवर शब्द सम् तथा वृ से मिलकर बना है। 'सम्' उपसर्ग है और 'वृ' धातु है। 'वृ' का अर्थ है रोकना या अड़ाना। यही संवर शब्द की व्युत्पत्ति है। आनव स्त्रोत ;पचमद्ध का दरवाजा है। उसे जो रोकता है, वही संवर है। जो आत्मा को वश में करता है उसी को संवर प्राप्त होता है।
___आनव का निरोध करना संवर है, अर्थात् समस्त आम्रवों को रोकना संवर है। मन, वचन, काया - इन तीन गुप्तियों को निराम्नवी बनाना संवर है।
आमव कर्मरूपी पानी के झरने के समान है। उसे रोककर कर्मरूपी पानी का रास्ता बंद करना संवर है।
संवर यह संवर के समान ही है।'
जिससे कर्म रोका जाता है वह संवर है। मिथ्यादर्शन आदि जो कर्म के आगमन के निमित्त हैं, उनका अभाव होना संवर है। अर्थात् मिथ्यादर्शन आदि निमित्त से होने वाले कर्म का रुक जाना 'संवर' है।
जिन सम्यक् दर्शन आदि अथवा गुप्ति, समिति आदि परिणामों से मिथ्यादर्शन आदि परिणाम रोके जाते हैं, उन्हें रोकने वाले उपाय संवर हैं।
___ कर्म के आस्रव को रोकने में समर्थ तथा स्वानुभव में परिणत जीव के शुभ और अशुभ कर्मों के आगमन का निरोध संवर है।
कर्म के आनव को रोकने में जो समर्थ है, वह संवर है। संवर के सम्यक्त्व, कषाय-जीतना और योग का अभाव जैसे अन्य भी नाम हैं।
आस्रव (आत्मा की चंचलता, योग, पदसिनग) का निरोध होना (कर्म-पुद्गलों का आत्मा में प्रवेश न होना) संवर है।।
कर्मबंधन जिसके योग से रुकता है उसे 'संवर' कहते हैं। जिस उज्ज्वल, आत्म-परिणाम से कर्मबंधन रुकता है उस (उज्ज्वल परिणाम) को संवर कहते हैं। इस प्रकार कर्मबंधन को रोकने के कारण को संवर कहते हैं।
__ आम्नव-अवस्था में जीव के प्रदेश में परिस्पंदन (कम्पन) होता रहता है। आम्नव के निरोध से जीव के चंचल प्रदेश स्थिर होते हैं। आत्म-प्रदेश की चंचलता आम्नव-द्वार है और स्थिरता संवर-द्वार है।
___आत्मा की राग-द्वेषमूलक अशुद्ध प्रवृत्ति को रोकना संवर का कार्य है। संवर के कारण आत्मा में नवीन कर्मों का आगमन नहीं होता।
जिसके कारण आत्मा में प्रवेश करने वाले कर्म रुकते हैं, वह गुप्ति, समिति आदि से युक्त संवर नाम का तत्त्व है।।
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