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जैन-दर्शन के नव तत्त्व (५) योग • मन, वचन और काया की प्रवृत्ति को योग कहते हैं। योग के कारण आत्मप्रदेश में परिस्पन्दन होता है तथा मिथ्यात्व के कारण आत्मा कर्म का ग्रहण करता है।
जिस प्रकार नदी के उद्गम-स्थान पर मूसलाधार वर्षा होने पर नदी की बाढ़ का पानी रोका नहीं जा सकता, उसीप्रकार जब तक मन, वचन और कायारूप योग की प्रवृत्ति चलती रहती है, तब तक कर्म से निवृत्ति नहीं हो सकती।
योगभाष्य आदि ग्रंथों में 'चित्तवत्ति का निरोधरूप ध्यान' - इस अर्थ में योग शब्द का प्रयोग किया गया है। परन्तु जैन-दर्शन में मन-वचन-काया से होने वाली आत्मा की क्रिया कर्म-परमाणुओं के साथ आत्मा का योग-संबंध स्थापित करती है, इसलिए उसे योग कहा गया है। और उसके निरोध को ध्यान कहा गया है। आत्मा सक्रिय है और उसके प्रदेश में मन, वचन और काया के कारण परिस्पंदन होता रहता है। परिस्पंदन की यह क्रिया तेरहवें गुणस्थान में होती है। चौदहवें गुण-स्थान में अयोगावस्था होती है। मन, वचन, काया और क्रिया का पूर्णतः निरोध होता है और आत्मा शुद्ध एवं स्थिर होता है।
कर्मजन्य मलिनता और योगजन्य चंचलता नष्ट होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। योग आम्नव है और उसके कारण कर्म का आगमन होता है। शुभ योग से पुण्य का आस्रव होता है और अशुभ योग से पाप का आनव होता है।
आत्मा की प्रवृत्ति के दो भेद हैं - (१) बाह्य तथा (२) अभ्यंतर।
बाह्य प्रवृत्ति का नाम योग है और अभ्यंतर प्रवृत्ति का नाम अध्यवसाय या परिणाम है। ये दोनों ही (१) शुभ और (२) अशुभ हैं।
शुभ योग और शुभ अध्यवसाय के निमित्त संयम, तप, त्याग आदि हैं। वे कर्म-निर्जरा के कारण हैं। अशुभ योग और अशुभ अध्यवसाय के लिए मिथ्यावादी लोगों का संयोग कारण है, और यह कर्म आस्रव का द्वार है। अशुभ योग तो एकान्त रूप से आस्रव है और शुभयोग आस्रव और निर्जरा का कारण है। शुभ योग से पुण्य-प्रकृति का आस्रव होने के साथ ही अशुभ-प्रकृति की निर्जरा भी होती है।
आत्मा अपनी बाह्य प्रवृत्ति, क्रिया और परिस्पंदन; मन, वचन और काया द्वारा करता है। योग के मुख्य तीन भेद हैं - मन, वचन, और काया। जब तक इनका प्रवाह प्रचण्ड रूप से चलता है, तब तक आत्मा को उसके द्वारा होने वाली प्रवृत्ति का परिणाम भोगना पड़ता है। इसलिए योग का सद्भाव तेरहवें गुणस्थान
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