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________________ १३७ जैन-दर्शन के नव तत्त्व पाप प्रसरणशील है, परंतु पुण्य संकोचशील है। मानव कर्ममय है। इस लोक में जैसे कर्म किए जाते हैं, वैसे ही फल परलोक में मिलते हैं अर्थात् अच्छे कर्म का फल अच्छा और बुरे कर्म का फल बुरा मिलता है। क्रतुमयः पुरुषो, यथाक्रतुरस्मिँल्लोके पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति। अच्छा आचरण करने वाले अच्छी योनि में जाते हैं और बुरा आचरण करने वाले बुरी योनि में जाते हैं। य इह रमणीय चरणा अभ्यासो ह यत्ते रमणीयां योनिमा-पद्येरन्। ___ यह इह कपूयचरण अभ्यासो ह यत्ते कपूयां योनिमा-पद्येरन् ।। पुण्य-कर्म से जीव पुण्यात्मा (पवित्र) बनता है और पापात्मा मलिन होता है। 'पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति, पापः पापेन।' शुभ (सत्कर्म) कर्म करने वाला शुभ फल प्राप्त करता है और पाप (अशुभ दुष्कर्म) करने वाला अशुभ फल प्राप्त करता है - शुभकृच्छुभमाप्नोति पापकृत्पापश्नुते।। पाप-कल्पना विषयक और पुण्य-कल्पना विषयक अनेक विद्वानों के मतों को अब तक प्रस्तुत किया गया। प्रत्येक विद्वान् की भाषा और शैली के स्वतंत्र और अलग-अलग होने पर भी, उनके मतों का सर्वसामान्य तात्पर्य एक ही निकलता है। वह यह कि पाप बुरा है और पुण्य अच्छा है। दुष्कृत्य का अंतिम परिणाम पाप और सत्कृत्य का अंतिम परिणाम पुण्य है। पाप क्लेशकारक है अतः मानव को उससे परावृत्त होना है और पुण्य सुखदायी है अतः उसे प्रयत्नपूर्वक अपना बना लेना है, इसी में मनुष्य-जीवन की सार्थकता है। पुण्य-पाप का अस्तित्त्व कुछ लोग कहते हैं - "कैसा पुण्य और कैसा पाप ? कुछ भी नहीं है। Eat, drink and be merry. खाना, पीना और मौज करना ही जीवन है।" चार्वाक कहते हैं - 'जब तक जीओ सुख से जीओ। कर्ज लो और घी पीओ। इस देह के भस्म होने पर पुनः आगमन कैसे होगा? इसलिए पाप-पुण्य इत्यादि कुछ नहीं है। इसी मत का निर्देश करते हुए सूत्रकृतांग में कहा गया है कि शास्त्रोक्त अनुष्ठान से उत्पन्न होने वाला सुख आदि फलरूप पुण्य नहीं है और निषिद्ध कर्म से उत्पन्न होने वाला नरक आदि फलरूप पाप नहीं है। इस लोक से परलोक अलग नहीं है। इस शरीर का विनाश होने पर आत्मा का भी विनाश होता है। इसलिए पुण्य-पाप इत्यादि कुछ भी नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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