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जैन दर्शन के नव तत्त्व
निश्चय-काल और व्यवहार काल
जैन - शास्त्र में काल के दो भेद माने गए हैं - ( १ ) निश्चयकाल ( द्रव्यरूप) और ( २ ) व्यवहारकाल ( पर्यायरूप ) । जिस कारण से द्रव्य में वर्तना होती है, अर्थात् जो वर्तना- लक्षण का धारक है, उसे निश्चयकाल कहते हैं । जिस प्रकार धर्म और अधर्म पदार्थ की गति एवं स्थिति में सहकारी कारण हैं, उसी प्रकार काल स्वयं द्रव्य की वर्तना में सहकारी कारण है । ६५
जिस कारण से जीव और पुद्गल में परिवर्तनरूप नए और जीर्ण पर्याय होते हैं, परिणाम, क्रिया, छोटे-बड़े आदि व्यवहार दिखाई देते हैं, उसे व्यवहारकाल कहते हैं । समय, अवलि, घड़ी आदि समस्त व्यवहार काल के रूप हैं ।
व्यवहारकाल निश्चयकाल का पर्याय है तथा जीव और पुद्गल के परिणाम से ही उत्पन्न होता है । इसलिए व्यवहारकाल को जीव और पुद्गल पर आश्रित माना गया है।
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व्यवहारकाल मनुष्य-क्षेत्र में ही होता है । निश्चयकाल द्रव्यरूप होने से नित्य है और व्यवहारकाल प्रत्येक क्षण नष्ट होने के कारण और पर्यायरूप होने से अनित्य है । कालद्रव्य अणुरूप है। पुद्गल द्रव्य के समान काल द्रव्य के स्कंध नहीं होते । लोकाकाश में जितने प्रदेश होते हैं उतने ही कालाणु होते हैं । ये कालाणु गति रहित होते हैं। ये लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर रत्नों की राशि के समान अवस्थित होते हैं । कालद्रव्य के अणु होने से काल में एक ही प्रदेश रहता है । इसलिए कालद्रव्य में तिर्यक प्रचय न होने से पाँच अस्तिकायों में काल की गणना नहीं की गई है। प्रॉ-ए-चक्रवर्ती ने कालद्रव्य की इस मान्यता से आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धान्त की तुलना की है ।
डॉ० सिद्धेश्वर शास्त्री का 'कालचक्र' ( पृ ३६-४८) एवं प्रॉ० वरुआ के Pre-Buddhist philosophy ( खण्ड ३, अ- १३) में काल संबंधी वैदिक मान्यता का विस्तृत वर्णन है। माध्यमिक कारिका और सन्मती टीका आदि में भी कालवादियों के खण्डन का विस्तृत विवेचन हैं
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पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध और आठ स्पर्श से रहित षड्गुण, हानिवृद्धि रूप, अगुरुलघु गुणों से युक्त, द्रव्य के परिणमन के लिए जिसका बाहूय लक्षण निमित्त है, ऐसा कालानुरूप निश्चयकाल द्रव्य है । ६७
पदार्थ अपने-अपने उपादानरूप कारणों से स्वयं ही परिणमन को प्राप्त होता है। कालद्रव्य अन्य द्रव्य की परिणति में सहायक है। जिस प्रकार कुम्हार का चक्र स्वयं ही घूमता है, तथा उसके परिभ्रमण के लिए नीचे की कील केवल सहायक होती है, उसी प्रकार कालद्रव्य समस्त द्रव्यों की परिणति का निमित्तभूत है । जो पदार्थ परिणति में सहकारी है उसे वर्तना कहते हैं । और वर्तना जिसका लक्षण है वह निश्चयकाल है।
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