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जैन, बौद्ध तथा गोता के आधारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
कहलाती है। इस प्रकार साधना अथवा नैतिक क्रिया के फल के प्रति शंकाकुल बने रहना विचिकित्सा है । शंकालु हृदय साधक में स्थिरता और धैर्य का अभाव होता है और उसकी साधना सफल नहीं हो पाती । अतः साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह इस प्रतीति के साथ नैतिक आचारण का प्रारम्भ करे कि क्रिया और फल का अविनाभावी सम्बन्ध है और यदि नैतिक आचरण किया जावेगा तो निश्चित रूप से उसका फल होगा ही । इस प्रकार क्रिया के फल के प्रति सन्देह न होना ही निर्विचिकित्सा है ।
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(ब) कुछ जैनाचार्यों के अनुसार तपस्वी एवं संयमपरायण मुनियों के दुर्बल, जर्जर शरीर अथवा मलिन वेशभूषा को देखकर मन में ग्लानि लाना विचिकित्सा है, अतः साधक की वेशभूषा एवं शरीरादि बाह्य रूप पर ध्यान न देकर उसके साधानात्मक गुणों पर विचार करना चाहिए । वेशभूषा एवं शरीर आदि बाह्य सौन्दर्य पर दृष्टि को केन्द्रित न करके उसे आत्म-सौन्दर्य पर केन्द्रित करना ही सच्ची निर्विचिकित्सा है । आचार्य समन्तभद्र का कथन है, शरीर तो स्वभाव से ही अपवित्र है, उसकी पवित्रता तो सम्यग् - ज्ञान-दर्शन- चारित्ररूप रत्नत्रय के सदाचरण से ही है अतएव गुणीजनों के शरीर से घृणा न कर उसके गुणों से प्रेम करना निर्विचिकित्सा है । "
४. अमूढदृष्टि - मूढ़ता अर्थात् अज्ञान । हेय और उपादेय, योग्य और अयोग्य के मध्य निर्णायक क्षमता का अभाव ही मूढ़ता है । मूढ़ताएँ तीन प्रकार हैं- १. देवमूढ़ता, २. लोकमूढ़ता, ३. समयमूढ़ता ।
(अ) देवमूढ़ता- - साधना का आदर्श कौन हैं ? उपास्य बनने की क्षमता किसमें हैं ? ऐसे निर्णायक ज्ञान का अभाव ही देवमूढ़ता है, इसके कारण साधक गलत आदर्श और उपास्य का चयन कर लेता है । जिसमें उपास्य अथवा साधना का आदर्श बनने की योग्यता नहीं है उसे उपास्य बना लेना देवमूढ़ता हैं । काम-क्रोधादि आत्म-विकारों के पूर्ण विजेता, वीतराग एवं अविकल ज्ञान और दर्शन से युक्त परमात्मा को ही अपना उपास्य और आदर्श बनाना ही देव के प्रति अमूढदृष्टि है ।
(ब) लोकमूढ़ता - लोक-प्रवाह और रूढ़ियों का अन्धानुकरण ही लोकमूढ़ता है । आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि 'नदियों एवं सागर में स्नान करने से आत्मा की शुद्धि मानना, पत्थरों का ढेर कर उससे मुक्ति समझना अथवा पर्वत से गिरकर या अग्नि में जलकर प्राण-विसर्जन करना आदि लोकमूढ़ताएँ हैं । 2
(स) समयमूढ़ता --- समय का अर्थ सिद्धान्त या शास्त्र भी है । इस अर्थ में सैद्धान्तिक ज्ञान या शास्त्रीय ज्ञान का अभाव समय- मूढ़ता है ।
५. उपबृंहण - ब्रूहि धातु के साथ उप उपसर्ग लगाने से उपबृंहण शब्द निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है वृद्धि करना, पोषण करना । अपने आध्यात्मिक गुणों का विकास
१. रत्नकरण्डक श्रावकाचार, २३
२. वही, २२
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