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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
प्रतीति है । वेदान्त में माया न तो सत् है और न असत् है, उसे चतुष्कोटि विनिमुक्त कहा गया हैं ।' वह सत् इसलिए नहीं है कि उसका निरसन किया जा सकता है। वह असत् इसलिए नहीं है कि उसके आधार पर व्यवहार होता है। वेदान्त दर्शन में माया जगत् की व्याख्या और उसकी उत्पत्ति का सिद्धान्त है और अविद्या वैयक्तिक आसक्ति है।
वेदान्त को माया की समीक्षा-वेदान्त-दर्शन में माया एक अर्ध सत्य है जबकि तार्किक दृष्टि से माया या तो सत्य हो सकती है या असत्य । जैन दार्शनिकों के अनुसार सत्य सापेक्ष अवश्य हो सकता है लेकिन अर्ध सत्य (Quasi-Real) ऐसी कोई अवस्था नहीं हो सकती। यदि अद्वय परमार्थ को नानारूपात्मक मानना अविद्या है, तो जैनदार्शनिकों को यह दृष्टिकोण स्वीकार नहीं है। यद्यपि जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराएँ अविद्या की इस व्याख्या में एकमत हैं कि अविद्या या मोह का अर्थ है अनात्म या 'पर' में आत्म-बुद्धि ।
उपसंहार-अज्ञान, अविद्या या मोह ही सम्यक् प्रगति में सबसे बड़ा अवरोध है । हमारे क्षुद्र व्यक्तित्व और परमात्मत्व के बीच सबसे बड़ी बाधा है। उसके हटते ही हम अपने को अपने में ही उपस्थित परमात्मा के निकट खड़ा पाते हैं। फिर भी प्रश्न यह है कि इस अविद्या या मिथ्यात्व से मुक्ति कैसे हो ? वस्तुतः अविद्या से मुक्ति के लिए यह आवश्यक नहीं कि हम अविद्या या अज्ञान को हटाने का प्रयत्न करें, क्योंकि उसके हटाने के सारे प्रयास वैसे ही निरर्थक होंगे जैसे कोई अंधकार को हटाने का प्रयत्न करे । जैसे प्रकाश के होते ही अंधकार समाप्त हो जाता है वैसे ही ज्ञान रूप प्रकाश या सम्यग्दृष्टि के उत्पन्न होते ही अज्ञान या अविद्या का अंधकार समाप्त हो जाता है । आवश्यकता इस बात की नहीं कि हम अविद्या या मिथ्यात्व को हटाने का प्रयत्न करें, वरन् आवश्यकता इस बात की है कि हम सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की ज्योति को प्रज्ज्वलित करें ताकि अविद्या या अज्ञान का तामिस्र (अन्धकार) समाप्त हो जाय ।
१. विवेकचूडामणि, माया-निरूपण, १११
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