________________
अविद्या (मिथ्यात्व) क्योंकि वे तर्क और अनुभव दोनों को ही यथार्थ मानकर चलते हैं। उनके अनुसार तार्किक ज्ञान ( बौद्धिक ज्ञान ) और अनुभूत्यात्मक ज्ञान दोनों ही यथार्थता का बोध करा सकते हैं । बौद्ध-दार्शनिकों की यह धारणा कि अविद्या केवल आत्मगत है, जैनदार्शनिकों को स्वीकार नहीं है । वे अविद्या का वस्तुगत आधार भी मानते हैं। उनकी दृष्टि में बौद्ध दृष्टिकोण एकांगी है। बौद्ध-दर्शन की अविद्या की विस्तृत समीक्षा डॉ० नथमल टांटिया ने अपनी पुस्तक 'स्टडीज इन जैन फिलासफी' में की है।
गीता एवं वेदान्त में अविद्या का स्वरूप-गीता में अविद्या, अज्ञान और माया शब्द का प्रयोग हुआ है । गीता में अज्ञान और माया का सामान्यतया दो भिन्न अर्थों में ही प्रयोग हुआ है। अज्ञान वैयक्तिक है, और माया ईश्वरीय शक्ति है। गीता में अज्ञान का अर्थ परमात्मा के उस वास्तविक स्वरूप के ज्ञान का अभाव है जिस रूप में वह जगत् में व्याप्त होते हुए भी उससे परे है। गीता में अज्ञान शब्द विपरीत ज्ञान, मोह, अनेकता को यथार्थ मान लेना आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । ज्ञान के सात्त्विक, राजस और तामस प्रकारों का विवेचन करते हुए गीता में स्पष्ट बताया गया है कि अनेकता को यथार्थ माननेवाला दृष्टिकोण या ज्ञान राजस है, इसी प्रकार यह मानना कि परमतत्त्व मात्र इतना ही है यह ज्ञान तामस है । गीता में माया को व्यक्ति के दुःख एवं बन्धन का कारण कहा गया है, क्योंकि यह एक भ्रान्त आंशिक चेतना का पोषण करती है और उस रूप में पूर्ण यथार्थता का ग्रहण सम्भव नहीं होता। फिर भी माया ईश्वर की एक ऐसी कार्यकारी शक्ति भी है जिसके माध्यम से परमात्मा इस नानारूपात्मक जगत् में अपने को अभिव्यक्त करता है। वैयक्तिक दृष्टि से माया परमार्थ का आवरण कर व्यक्ति को उसके यथार्थ ज्ञान से वंचित करती है, जब कि परमसत्ता की अपेक्षा से वह उसकी एक शक्ति ही सिद्ध होती है।
वेदान्त-दर्शन में अविद्या का अर्थ अद्वय परमार्थ में अनेकता की कल्पना है। बृहदारण्यकोपनिषद् में कहा गया है कि जो अद्वय में अनेकता का दर्शन करता है वह मृत्यु को प्राप्त होता है। इसके विपरीत अनेकता में एकता का दर्शन सच्चा ज्ञान है । ईशावास्योपनिषद् में कहा गया है कि जो सभी को परमात्मा से और परमात्मा में सभी को स्थित देखता है उस एकत्वदर्शी को न विजुगुप्सा होती है और न उसे कोई मोह या शोक होता है । वेदान्त परम्परा में अविद्या जगत् के प्रति आसक्ति एवं मिथ्या दृष्टिकोण है और माया एक ऐसी शक्ति है जिससे यह अनेकतामय जगत् अस्तित्त्ववान् प्रतीत होता है । माया इस नानारूपात्मक जगत् का आधार है और अविद्या हमें उससे बाँधे रखती है। वेदान्त-दर्शन में माया अद्वय अविकार्य परमसत्ता की जगत् के रूप में
१. विस्तृत विवेचन के लिए देखिए, जैन स्टडीज, पृ० १२६-१३७ एवं २०१-२१५ २. गीता १८।२१-२२
३. बृहदारण्यकोपनिषद्, ४।४।१९ ४. ईशावास्योपनिषद्, ६-७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org