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________________ अविद्या (मिथ्यात्व) ४३ जैन-दर्शन में अविद्या या मिथ्यात्व केवल आत्मनिष्ठ (Subjective) ही नहीं है, वरन् वह वस्तुनिष्ठ भी है। जैन-दर्शन में मिथ्यात्व का अर्थ है-ज्ञान का अभाव या विपरीत ज्ञान । उसमें एकांत या निरपेक्ष दृष्टि को भी मिथ्यात्व कहा गया है । तत्त्व का सापेक्ष ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है और ऐकांतिक दृष्टिकोण मिथ्याज्ञान है । दूसरे, जैनदर्शन में अकेला मिथ्यात्व ही बन्धन का कारण नहीं है । बन्धन का प्रमुख कारण होते हुए भी वह सर्वस्व नहीं है । मिथ्यादर्शन के कारण ज्ञान दूषित होता है और ज्ञान के दूषित होने से चारित्र दूषित होता है । इस प्रकार मिथ्यात्व अनैतिक जीवन का प्रारम्भिक बिन्दु है और अनैतिक आचरण उसकी अन्तिम परिणति है । नैतिक जीवन के लिए मिथ्यात्व से मुक्त होना आवश्यक है, क्योंकि जब तक दृष्टि दूषित है ज्ञान भी दूषित होगा और जब तक ज्ञान दूषित है तब तक आचरण भी सम्यक् या नैतिक नहीं हो सकता । नैतिक जीवन की प्रगति के लिए प्रथम शर्त है मिथ्यात्व से मुक्त होना । जैन-दार्शनिकों की दृष्टि में मिथ्यात्व की पूर्व-कोटि का पता नहीं लगाया जा सकता, यद्यपि वह अनादि है किन्तु वह अनन्त नहीं। जैन-दर्शन की पारिभाषिक शब्दावली में कहें तो भव्य जीवों की अपेक्षा से मिथ्यात्व अनादि और सान्त है और अभव्य जीवों की अपेक्षा से वह अनादि और अनन्त है । आत्मा पर अविद्या या मिथ्यात्व का आवरण कबसे है, इसका पता नहीं लगाया जा सकता, यद्यपि अविद्या या मिथ्यात्व से मुक्ति पायी जा सकती है। जैन-दर्शन में मिथ्यात्व का मूल 'कर्म' और 'कर्म' का मूल मिथ्यात्व है । एक ओर मिथ्यात्व का कारण अनैतिकता है तो दूसरी ओर अनैतिकता का कारण मिथ्यात्व है। इसी प्रकार सम्यक्त्व का कारण नैतिकता और नैतिक का कारण सम्यक्त्व है । नैतिक आचरण के परिणामस्वरूप सम्यक्त्व या यथार्थ दृष्टिकोण का उद्भव होता है । सम्यक्त्व या यथार्थ दृष्टिकोण के कारण नैतिक आचरण होता है । बौद्ध-वर्शन में अविद्या का स्वरूप-बौद्ध-दर्शन में प्रतीत्यसमुत्पाद की प्रथम कड़ी अविद्या ही मानी गयी है । अविद्या से उत्पन्न व्यक्तित्व ही जीवन का मूलभूत पाप है । जन्म-मरण की परम्परा और दुःख का मूल अविद्या है। जैसे जैन-दर्शन में मिथ्यात्व की पूर्वकोटि नहीं जानी जा सकती, वैसे ही बौद्ध-दर्शन में भी अविद्या की पूर्वकोटि नहीं जानी जा सकती । यह एक ऐसी सत्ता है जिसे समझना कठिन है। हमें बिना अधिक गहराई में गये इसके अस्तित्त्व को स्वीकार कर लेना होगा । उसमें अविद्या वर्तमान जीवन की अनिवार्य पूर्ववर्ती अवस्था है, इसके पूर्व कुछ नहीं; क्योंकि जन्म-मरण की प्रक्रिया का कहीं आरम्भ नहीं खोजा जा सकता। लेकिन दूसरी ओर इसके अस्तित्त्व से इनकार भी नहीं किया जा सकता । स्वयं जीवन या जन्म-मरण की परम्परा इसका प्रमाण है कि अविद्या उपस्थित है। अविद्या का उद्भव कैसे होता है यह नहीं बताया जा सकता। अश्वघोष के अनुसार, "तथता" से ही अविद्या का जन्म होता है।' डॉ० राधाकृष्णन् १. उद्धृत-जैन स्टडीज, पृ० १३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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