SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन एवं दान का अहंकार करना अज्ञान है (१६-१५) ४. विपरीत ज्ञान के द्वारा क्षणभंगुर या नाशवान शरीर में आत्मबुद्धि रखना तामसिक ज्ञान है (१८-२२)। इसी प्रकार असद् का ग्रहण, अशुभ आचरण (१६-१०) और संशयात्मकता को भी गीता में अज्ञान कहा गया है। पाश्चात्य दर्शन में मिथ्यात्व का प्रत्यय-मिथ्यात्व यथार्थता के बोध में बाधक तत्त्व है। वह एक ऐसा रंगीन चश्मा है जो वस्तुतत्त्व का अयथार्थ अथवा भ्रान्त रूप ही प्रकट करता है। भारत के ही नहीं, पाश्चात्त्य विचारकों ने भी सत्य के जिज्ञासु को मिथ्या धारणाओं से परे रहने का संकेत किया है । पाश्चात्त्य दर्शन के नवयुग के प्रतिनिधि फ्रांसिस बेकन शुद्ध और निर्दोष ज्ञान की प्राप्ति के लिए मानस को निम्न चार मिथ्या धारणाओं से मुक्त रखने का निर्देश करते हैं । चार मिथ्या धारणाएँ ये है १. जातिगत मिथ्या धारणाएँ ( Idola Trbius )-सामाजिक संस्कारों से प्राप्त मिथ्या धारणाएँ। २. व्यक्तिगत मिथ्या विश्वास ( Idola Specus )-व्यक्ति के द्वारा बनाई गई मिथ्या धारणाएँ (पूर्वाग्रह) । ३. बाजारू मिथ्या विश्वास ( Idola Fori )-असंगत अर्थ आदि । ४. रंगमंच की भ्रान्ति ( Idola Theatri )-मिथ्या सिद्धांत या मान्यताएँ । वे कहते हैं इन मिथ्या विश्वासों (पूर्वाग्रहों) से मानस को मुक्त कर ही ज्ञान को यथार्थ और निर्दोष रूप में ग्रहण करना चाहिए।' जैन-वर्शन में अविद्या का स्वरूप-जैन-दर्शन में अविद्या का पर्यायवाची शब्द 'मोह' भी है । मोह सत् के संबंध में यथार्थ दृष्टि को विकृत कर गलत मार्ग-दर्शन करता है और असम्यक् आचरण के लिए प्रेरित करता है। परमार्थ और सत्य के संबंध में जो अनेक भ्रान्त धारणाएँ बनती हैं और परिणामतः जो दुराचरण होता है उसका आधार मोह ही है । मिथ्यात्व, मोह या अविद्या के कारण व्यक्ति की दृष्टि दूषित होती है और परममूल्यों के संबंध में भ्रान्त धारणाएँ बन जाती हैं । वह उन्हें ही परममूल्य मान लेता है, जो कि वस्तुतः परममूल्य या सर्वोच्च मूल्य नहीं होते हैं। अविद्या और विद्या का अन्तर करते हुए समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि जो पुरुष अपने से अन्य पर-द्रव्य (सचित्त-स्त्रीपुत्रादि, अचित्त-स्वर्णरजतादि, मिश्र-ग्रामनगरादि) को ऐसा समझे कि 'मेरे हैं, ये मेरे पूर्व में थे इनका मैं भी पहले था तथा ये मेरे आगामी होंगे, मैं भी इनका आगामी होऊंगा' ऐसा झूठा आत्मविकल्प करता है वह मूढ है और जो पुरुष परमार्थ को जानता हुआ ऐसा झूठा विकल्प नहीं करता वह मूढ़ नहीं है, ज्ञानी है । १. हिस्ट्री आफ फिलासफी (थिली), पृ० २८७ २. समयसार, २०, २१, २२, तु० गीता १६।१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy