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________________ विवेचन अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं रहा है। एक अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रंथ श्री सुशीलकुमार मैत्रा का ‘एथिक्स आफ दि हिन्दूज' है; इस ग्रंथ में विवेचन शैली की काफी नवोनता है और तुलनात्मक और समालोचनात्मक दृष्टिकोण का निर्वाह भी सन्तोषप्रद रूप में हुआ है। आदरणीय तिलकजी का गीता रहस्य यद्यपि गीता पर एक टीका है लेकिन उसके पूर्व भाग में उन्होंने भारतीय नैतिकता की जो व्याख्याएँ प्रस्तुत की हैं वे वस्तुतः सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। हिन्दी समिति उत्तर प्रदेश से प्रकाशित पद्मभूषण डॉ० भीखनलालजी आत्रेय का 'भारतीय नीतिशास्त्र का इतिहास' नामक विशालकाय ग्रंथ भी इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रयास माना जा सकता है, यद्यपि इसमें भी विद्वान् लेखक ने तुलनात्मक एवं समालोचनात्मक दृष्टि एवं सैद्धान्तिक विवेचना को अधिक महत्त्व नहीं दिया है । ग्रंथ के अधिकांश भाग में विभिन्न भारतीय विचारकों के नैतिक उपदेशों का संकलन है, फिर भी ग्रन्थ के अन्तिम भाग में विद्वान् लेखक द्वारा जो कुछ लिखा गया है वह युगीन सन्दर्भ में भारतीय नैतिकता को समझने का एक महत्त्वपूर्ण साधन अवश्य है। इसी प्रकार लन्दन से प्रकाशित (१९६५) श्री ईश्वरचन्द्र का 'इथिकल फिलासफी आफ इण्डिया' नामक ग्रन्थ भी भारतीय नीतिशास्त्र के अध्ययन का एक प्रामाणिक ग्रन्थ माना जा सकता है । लेकिन उपरोक्त दोनों ग्रन्थों में भी तुलनात्मक दृष्टि का अधिक विकास नहीं देखा जाता है । जहाँ तक जैनाचार के विवेचन का प्रश्न है उसे इन समस्त ग्रंथों में सामान्यतया १५-२० पृष्ठों से अधिक का स्थान उपलब्ध होना सम्भव ही नहीं था। दूसरे जैन आचारदर्शन और बौद्ध आचारदर्शन में निहित समानताओं की चर्चा तो शायद ही कभी उठी हो । इसी प्रकार गीता की नैतिक मान्यताओं का जैन और बौद्ध परम्परा से कितना साम्य है यह विषय भी अछूता ही रहा है । जहां तक जैन आचार दर्शन के स्वतंत्र एवं व्यापक अध्ययन का प्रश्न है कुछ प्रारम्भिक प्रयासों को छोड़कर यह क्षेत्र भी अछूता ही रहा है । जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा और ज्ञानमीमांसा पर आदरणीय सातकाडी मुकर्जी, डॉ० टाटिया, डा० पद्मराजे, डा० हरिसत्य भट्टाचार्य के ग्रन्थ उपलब्ध हैं। जैन मनोविज्ञान पर भी डा० मोहनलाल मेहता और डा० कलघाटगी के ग्रन्थ उपलब्ध हैं । जबकि जैन आचार दर्शन पर स्वतंत्र रूप से किसी भी ग्रन्थ का अभाव ही था, यद्यपि डा० शान्ताराम भालचन्द्र देव का जैन मुनियों के आचार पर एक विशाल-काय शोध प्रबन्ध अवश्य उपलब्ध था, लेकिन उसमें भी आचार दर्शन की सैद्धान्तिक समीक्षाओं का अभाव ही है । संयोग से जब कि यह प्रबन्ध अपनी पूर्णता की ओर था तब ही डा० मेहता का 'जैन आचार' नामक ग्रन्थ भी प्रकाश में आया, यद्यपि इसमें भी आचार दर्शन की सैद्धान्तिक समस्याओं पर विशेष विचार नहीं हुआ है । ग्रन्थकार ने अपने को आचार के सामान्य नियमों की विवेचना तक ही सीमित रखा है । यद्यपि यह प्रसन्नता का विषय है कि इस प्रबन्ध के अन्तिम टंकण के पूर्व ही डॉ० सोगानी का 'एथिकल डाक्ट्रिन इन जैनिज्म (१९६७)', एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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