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जन संगीत के उस सम-स्वर को मधुरता का रसास्वादन नहीं कर सके । कृष्ण, बुद्ध और महावीर आदि महापुरुषों एवं भारतीय ऋषि महर्षियों के नैतिक उपदेशों की वह पवित्र धरोहर जिसे उन्होंने अपनी बौद्धिक प्रतिभा एवं सतत साधना के अनुभवों से प्राप्त किया था, जो मानव जाति के लिए चिर-सौख्य एवं शाश्वत् शांति का संदेश लेकर अवतरित हुई थी, मानव उसका सही मूल्यांकन नहीं कर सका । मानव ने यद्यपि उनके इस महान् वरदान को धर्मवाणी या भगवद्वाणी के रूप में श्रद्धा से देखा, उसकी पूजा प्रतिष्ठा की, उसे सुनहले वस्त्रों में आबद्ध कर भव्य मंदिरों और मठों में सुरक्षित रखा। कुछ ने श्रद्धावश उसका नित्य पाठ किया लेकिन हरिभद्रसूरी और गांधी जैसे बिरले ही थे, जिन्होंने उसके समस्वरों को सुना, उसके मर्म तक पहुँचने की कोशिश की और उसकी एकरूपता का दर्शन कर उसे जीवन में उतारा। किन्तु अधिकांश ने उसे साम्प्रदायिकता का जामा पहनाया और परिणाम यह हुआ कि मानव जाति के प्रति दिये गये वे सार्वभौम नैतिक संदेश एक संकुचित क्षेत्र में आबद्ध हो गये । साथ ही अपने विचारों के श्रेष्ठत्व के प्रतिपादन के व्यामोह में उस पर ऐसी सांप्रदायिक व्याख्याएँ लिखी गयीं जिनके परिणामस्वरूप विशेष आचार के नियम इतने उभर आये कि उनमें नैतिकता की मूलात्मा पूर्णतया दब सी गई ।
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सद्भाग्य से पाश्चात्त्य विचार परम्परा की जिज्ञासु वृत्ति के कारण वर्तमान युग में असाम्प्रदायिक आधारों पर भारतीय धर्मों का अध्ययन प्रारम्भ हुआ । यह प्रयास भारतीय एवं पाश्चात्त्य दोनों प्रकार के विद्वानों द्वारा किया गया। जिन पाश्चात्त्य विचारकों ने भारतीय आचार दर्शन का समग्ररूप में तुलनात्मक और समालोचनात्मक अध्ययन किया उनमें मेकेन्जी और हापकिन्स प्रमुख हैं । मेकेन्जी ने 'हिन्दू एथिक्स' तथा हापकिन्स ने 'दि एथिक्स आफ इण्डिया' नामक ग्रन्थ लिखे । इन ग्रन्थकारों के दृष्टिकोण में भारतीय सम्प्रदायों के साम्प्रदायिक व्यामोह का तो अभाव था लेकिन एक दूसरे प्रकार का व्यामोह था, और वह था ईसाई धर्म एवं पाश्चात्त्य विचार परम्परा की क्षेष्ठता का । दूसरे उपरोक्त विचारक भारतीय आचार परम्परा के स्रोत ग्रन्थों के इतने निकट नहीं थे, जितना उनका अध्येता एक भारतीय हो सकता था ।
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जिन भारतीय विचारकों ने इस सन्दर्भ में लिखा उनमें श्री शिव स्वामी अय्यर का 'दि इव्होल्यूशन आफ हिन्दू मारल आइडियल्स' नामक व्याख्यान ग्रंथ है, जिसमें भारतीय नैतिक चिन्तना के आचार नियमों का सामान्य रूप में विवेचन है, किन्तु जैन और बौद्ध दृष्टिकोणों का इसमें अभाव -सा ही है। भारतीय आचार दर्शन के अन्य ग्रन्थों में सुश्री सूरमादास गुप्ता का 'दि डेव्हलपमेन्ट आफ मारल फिलासफी इन इण्डिया' नामक शोध प्रबन्ध उल्लेखनीय है । इसमें विभिन्न दर्शनों के नैतिक सिद्धान्तों का विवरणात्मक संक्षिप्त प्रस्तुतीकरण है । लेखिका की दृष्टि में समालोचनात्मक और तुलनात्मक
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