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________________ ४० जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन और असत् की कोई निश्चित धारणा नहीं रखता । यह अनिर्णय की अवस्था है । सांशयिक ज्ञान सत्य होते हुए भी मिथ्या है । नैतिक दृष्टि से ऐसा साधक कब पथ-भ्रष्ट हो सकता है, कहा नहीं जा सकता। वह तो लक्ष्योन्मुखता और लक्ष्यविमुखता के मध्य हिंडोले की भांति झूलता हुआ अपना समय व्यर्थ गँवाता है । गीता भी यही कहती है कि संशय की अवस्था में लक्ष्य प्राप्त नहीं होता। संशयी आत्मा विनाश को ही प्राप्त होता है।' ५. अज्ञान-जैन विचारकों ने अज्ञान को पूर्वाग्रह, विपरीत-ग्रहण, संशय और ऐकान्तिक ज्ञान से पृथक् माना है। उपर्युक्त चारों मिथ्यात्व के विधायक पक्ष कहे जा सकते हैं । क्योंकि इनमें ज्ञान तो उपस्थित है, लेकिन वह अयथार्थ है । इनमें ज्ञानाभाव नहीं, वरन् ज्ञान की अयथार्थता है, जबकि अज्ञान ज्ञानाभाव है । अतः वह मिथ्यात्व का निषेधात्मक पक्ष प्रस्तुत करता है । अज्ञान नैतिक-साधन का सब से अधिक बाधक तत्त्व है, क्योंकि ज्ञानाभाव में व्यक्ति को अपने लक्ष्य का भान नहीं हो सकता है, न वह कर्तव्याकर्तव्य का विचार कर सकता है। शुभाशुभ में विवेक करने की क्षमता का अभाव अज्ञान ही है । ऐसे अज्ञान की अवस्था में नैतिक आचरण संभव नहीं होता। मिथ्यात्व के २५ भेद--मिथ्यात्व के २५ भेदों का उल्लेख प्रतिक्रमणसूत्र में है जिसमें से १० भेदों का उल्लेख स्थानांगसूत्र में है, शेष मिथ्यात्व के भेदों का वर्णन मूलागम ग्रन्थों में यत्रतत्र बिखरा हुआ मिलता है । ये २५ भेद इस प्रकार हैं (१) धर्म को अधर्म समझना, (२) अधर्म को धर्म समझना, (३) संसार (बंधन) के मार्ग को मुक्ति का मार्ग समझना, (४) मुक्ति के मार्ग को बन्धन का मार्ग समझना, (५) जड़ पदार्थों को चेतन ( जीव ) समझना, (६) आत्मतत्त्व (जीव) को जड़ पदार्थ (अजीव) समझना, (७) असम्यक् आचरण करनेवालों को साधु समझना, (८) सम्यक् आचरण करनेवाले को असाधु समझना, (९) मुक्तात्मा को बद्ध मानना, (१०) राग-द्वेष से युक्त को मुक्त समझना ।२ (११) आभिग्रहिक मिथ्यात्व-परम्परागत रूप में प्राप्त धारणाओं को बिना समीक्षा के अपना लेना अथवा उससे जकड़े रहना । (१२) अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व-सत्य को जानते हुए भी उसे स्वीकार नहीं करना अथवा सभी मतों को समान मूल्य का समझना । (१३) आभिनिवेशिक मिथ्यात्व-अभिमान की रक्षा के निमित्त असत्य मान्यता को हठपूर्वक पकड़े रहना। (१४) सांशयिक मिथ्यात्व-संशय ग्रस्त बने रहकर सत्य का निश्चय नहीं कर पाना । (१५) अनाभोग मिथ्यात्व-विवेक अथवा ज्ञान क्षमता का अभाव । (१६) लौकिक मिथ्यात्व-लोक रूढ़ि में अविचार पूर्वक बँधे रहना । (१७) लोकोत्तर मिथ्यात्व-पारलौकिक उपलब्धियों के निमित्त स्वार्थवश धर्म-साधना करना । (१८) कुप्रवचन मिथ्यात्व-मिथ्या दार्शनिक विचारणाओं को ग्रहण करना । (१९) न्यून मिथ्यात्व-पूर्ण सत्य को आंशिक सत्य अथवा तत्त्व स्वरूप १. गीता ४।४० २. स्थानांग १०, तुलना कीजिए-अंगुत्तरनिकाय, १।१०-१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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