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________________ अविद्या (मिथ्यात्व) २. विपरीत-वस्तुतत्त्व को स्वरूप में ग्रहण न कर विपरीत रूप में ग्रहण करना भी मिथ्यात्व है । प्रश्न हो सकता है कि जब वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक है और उसमें विरोधी धर्म भी हैं तो सामान्य व्यक्ति, जिसका ज्ञान अंशग्राही है, इस विपरीत ग्रहण के दोष से कैसे बच सकता है, क्योंकि उसने वस्तुतत्त्व के जिस पक्ष को ग्रहण किया उसका विरोधी धर्म भी उसमें उपस्थित है अतः उसका समस्त ग्रहण विपरीत ही होगा! इस विचार में भ्रान्ति यह है कि यद्यपि वस्तु अनन्तधर्मात्मक है, लेकिन यह तो सामान्य कथन है । एक अपेक्षा से वस्तु में दो विरोधी धर्म नहीं होते, एक ही अपेक्षा से आत्मा को नित्य और अनित्य नहीं माना जाता है। आत्मा द्रव्यार्थिक दृष्टि से नित्य है तो पर्यायार्थिक दृष्टि से अनित्य है, अतः आत्मा को पर्यायार्थिक दृष्टि से भी नित्य मानना विपरीत ग्रहण रूप मिथ्यात्व है। बुद्ध ने भी विपरीत ग्रहण को मिथ्यादृष्टित्व माना है और विभिन्न प्रकार के विपरीत ग्रहणों को स्पष्ट किया है ।' गीता में भी विपरीत ग्रहण को अज्ञान कहा गया है । अधर्म को धर्म और धर्म को अधर्म के रूप में मानने वाली बुद्धि को गीता में तामस कहा गया है (गीता, १८।३२) ३. नयिक-बिना बौद्धिक गवेषणा के परम्परागत तथ्यों, धारणाओं, नियमोपनियमों को स्वीकार कर लेना वैनयिक मिथ्यात्व है । यह एक प्रकार की रूढ़िवादिता है । वैनयिक मिथ्यात्व को बौद्ध दृष्टि से शीलवत-परामर्श भी कहा जा सकता है । इसे हम कर्मकाण्डी मनोवृत्ति भी कह सकते हैं। गीता में इस प्रकार के रूढ़-व्यवहार की निन्दा की गयी है। गीता कहती है ऐसी क्रियाएँ जन्म-मरण को बढ़ानेवाली और त्रिगुणात्मक होती हैं । ४. संशय-संशयावस्था को भी जैन-विचारणा में मिथ्यात्व या अयथार्थता माना गया है । यद्यपि जैन-दार्शनिकों की दृष्टि में संशय को नैतिक विकास की दृष्टि से अनुपादेय माना गया है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि जैन-विचारकों ने संशय को इस कोटि में रखकर उसके मूल्य को भूला दिया है । जैन-विचारक भी आज के वैज्ञानिकों की तरह संशय को ज्ञान की प्राप्ति के लिए आवश्यक मानते हैं । जैनागम आचारांगसूत्र में कहा गया है, जो संशय को जानता है वही संसार के स्वरूप का परिज्ञाता होता है, जो संशय को नहीं जानता वह संसार के स्वरूप का भी परिज्ञाता नहीं हो सकता है।' लेकिन साधनामय जीवन में संशय से ऊपर उठना होता है । आचार्य आत्मारामजी आचारांगसूत्र की टीका में लिखते हैं, संशय ज्ञान कराने में सहायक है, परन्तु यदि वह जिज्ञासा की सरल भावना का परित्याग करके केवल संदेह करने की कुटिल वृत्ति अपनाता है तो वह पतन का कारण बन जाता है। संशय वह स्थिति है जिसमें प्राणी सत् १. अंगुत्तरनिकाय, १।११ ३. आचारांग, ११५।१।१४४ २. गीता, २१४२-४५ ४. आचारांग-हिन्दीटीका, प्रथम भाग, पृ० ४०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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