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________________ ३० जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन और वही ज्ञानमय आत्मा उसका साध्य है । इस प्रकार ज्ञानस्वभावमय आत्मा ही मोक्ष का उपादान कारण है । क्योंकि जो ज्ञान है, वह आत्मा है और जो आत्मा है वह ज्ञान है।' अतः मोक्ष का हेतु ज्ञान ही सिद्ध होता है । ___ इस प्रकार जैन-आचार्यों ने साधन-त्रय में ज्ञान को अत्यधिक महत्त्व दिया है। आचार्य अमृतचन्द्र का उपर्युक्त दृष्टिकोण तो जैन-दर्शन को शंकर के निकट खड़ा कर देता है। फिर भी यह मानना कि जैन-दृष्टि में ज्ञान ही मात्र मुक्ति का साधन है जैनविचारणा के मौलिक मन्तव्य से दूर होना है। यद्यपि जैन साधना में ज्ञान मोक्ष-प्राप्ति का प्राथमिक एवं अनिवार्य कारण है, फिर भी वह एक मात्र कारण नहीं माना जा सकता। ज्ञानाभाव में मुक्ति सम्भव नहीं है, किन्तु मात्र ज्ञान से भी मुक्ति सम्भव नहीं है । जैन-आचार्यों ने ज्ञान को मुक्ति का अनिवार्य कारण स्वीकार करते हुए यह बताया कि श्रद्धा और चारित्र का आदर्शोन्मुख एवं सम्यक् होने के लिए ज्ञान महत्त्वपूर्ण तथ्य है, सम्यग्ज्ञान के अभाव में श्रद्धा अन्धश्रद्धा होगी और चारित्र या सदाचरण एक ऐसी कागजी मुद्रा के समान होगा, जिसका चाहे बाह्य मूल्य हो, लेकिन आन्तरिक मूल्य शून्य ही है। आचार्य कुन्दकुन्द, जो ज्ञानवादी परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं वे भी स्पष्ट कहते हैं कि कोरे ज्ञान से निर्वाण नहीं होता यदि श्रद्धा न हो और केवल श्रद्धा से भी निर्वाण नहीं होता यदि संयम (सदाचरण) न हो ।' जैन-दार्शनिक शंकर के समान न तो यह स्वीकार करते हैं कि मात्र ज्ञान से मुक्ति हो सकती है, न रामानुज प्रभृति भक्तिमार्ग के आचार्यों के समान यह स्वीकार करते हैं कि मात्र भक्ति से मुक्ति होती है । उन्हें मीमांसा दर्शन की यह मान्यता भी ग्राह्य नहीं है कि मात्र कर्म से मुक्ति हो सकती है । वे तो श्रद्धासमन्वित ज्ञान और कर्म दोनों से मुक्ति को सम्भावना स्वीकार करते हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र का पूर्वापर सम्बन्ध भी ऐकातिक नहींजैन विचारणा के अनुसार साधन-त्रय में एक क्रम तो माना गया है यद्यपि इस क्रम को भी ऐकान्तिक रूप में स्वीकार करना उसकी स्याद्वाद की धारणा का अतिक्रमण ही होगा। क्योंकि जहाँ आचरण के सम्यक् होने के लिए सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन आवश्यक हैं वहीं दूसरी ओर सम्यग्ज्ञान एवं दर्शन की उपलब्धि के पूर्व भी आचरण का सम्यक् होना आवश्यक है । जैनदर्शन के अनुसार जबतक तीव्रतम (अनन्तानुबन्धी) क्रोध, मान, माया और लोभ चार कषायें समाप्त नहीं होती तब तक सम्यक्-दर्शन और ज्ञान भी प्राप्त नहीं होता । आचार्य शंकर ने भी ज्ञान की प्राप्ति के पूर्व वैराग्य का होना आवश्यक माना है। इस प्रकार सदाचरण और संयम के तत्त्व सम्यक्-दर्शन और ज्ञान की १. समयसार, १० २. समयसारटीका, १५१ ३. प्रवचनसार, चारित्राधिकार, ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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