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त्रिविध साधना-मार्ग
स्वरूप को नहीं जानता, ऐसा जीव और अजीव के विषय में अज्ञानी साधक क्या धर्म (संयम) का आचरण करेगा ?' उत्तराध्ययनसूत्र में भी यही कहा है कि सम्यग्ज्ञान के अभाव में सदाचरण नहीं होता। इस प्रकार जैन-दर्शन ज्ञान को चारित्र के पूर्व मानता है। जैन दार्शनिक यह तो स्वीकार करते हैं कि सम्यक् आचरण के पूर्व सम्यक् ज्ञान का होना आवश्यक है, फिर भी वे यह स्वीकार नहीं करते हैं कि अकेला ज्ञान ही मुक्ति का साधन है । ज्ञान आचरण का पूर्ववर्ती अवश्य है यह भी स्वीकार किया गया है कि ज्ञान के अभाव में चारित्र सम्यक् नहीं हो सकता । लेकिन यह प्रश्न विचारणीय है कि क्या ज्ञान ही मोक्ष का मूल हेतु है ? । ___ साधन-त्रय में ज्ञान का स्थान-जैनाचार्य अमृतचन्द्रसूरि ज्ञान की चारित्र से पूर्वता को सिद्ध करते हुए एक चरम सीमा स्पर्श कर लेते हैं । वे अपनी समयसार टीका में लिखते हैं कि ज्ञान ही मोक्ष का हेतु है, क्योंकि ज्ञान का अभाव होने से अज्ञानियों में अंतरंग व्रत, नियम, सदाचरण और तपस्या आदि की उपस्थिति होते हुए भी मोक्ष का अभाव है। क्योंकि अज्ञान तो बन्ध का हेतु है, जबकि ज्ञानी में ज्ञान का सद्भाव होने से बाह्य व्रत, नियम, सदाचरण, तप आदि की अनुपस्थिति होने पर भी मोक्ष का सद्भाव है । आचार्य शंकर भी यह मानते हैं कि एक ही कार्य ज्ञान के अभाव में बन्धन का हेतु और ज्ञान की उपस्थिति में मोक्ष का हेतु होता है। इससे यही सिद्ध होता है कि कर्म नहीं, ज्ञान ही मोक्ष का हेतु है।५ आचार्य अमृतचन्द्र भी ज्ञान को विविध साधनों में प्रमुख मानते हैं। उनकी दृष्टि में सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र भी ज्ञान के ही रूप हैं । वे लिखते हैं कि मोक्ष के कारण सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र है । जीवादि तत्त्वों के यथार्थ श्रद्धान रूप से तो जो ज्ञान है वह तो सम्यग्दर्शन है और उनका ज्ञान-स्वभाव से ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान है तथा रागादि के त्याग-स्वभाव से ज्ञान का होना सम्यक्चारित्र है । इस प्रकार ज्ञान ही परमार्थतः मोक्ष का कारण है। यहां पर आचार्य दर्शन और चारित्र को ज्ञान के अन्य दो पक्षों के रूप में सिद्ध कर मात्र ज्ञान को ही मोक्ष का हेतु सिद्ध करते हैं। उनके दृष्टिकोण के अनुसार दर्शन और चारित्र भी ज्ञानात्मक हैं, ज्ञान की ही पर्यायें हैं । यद्यपि यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि आचार्य मात्र ज्ञान की उपस्थिति में मोक्ष के सद्भाव की कल्पना करते हैं, फिर भी वे अन्तरंग चारित्र की उपस्थिति से इनकार नहीं करते हैं । अन्तरंग चारित्र तो कषाय आदि के क्षय के रूप में सभी साधकों में उपस्थित होता है । साधक और साध्य विवेचन में हम देखते हैं कि साधक आत्मा पारमार्थिक दृष्टि से ज्ञानमय ही है
१. दशवैकालिक ४।२ ३. व्यवहारभाष्य, ७।२१७ ५. गीता (शां०), अ० ५ पीठिका
२. उत्तराध्ययन २८।३० ४. समयसारटीका, १५३ ६. समयसारटीका, १५५
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