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________________ २६ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन प्रज्ञा प्रथम है और श्रद्धा द्वितीय स्थान पर । संयुत्तनिकाय में बुद्ध कहते हैं कि श्रद्धा पुरुष की साथी है और प्रज्ञा उस पर नियन्त्रण करती है ।" इस प्रकार श्रद्धा पर विवेक का स्थान स्वीकार किया गया है । बुद्ध कहते हैं, श्रद्धा से ज्ञान बड़ा है। इस प्रकार बुद्ध की दृष्टि में ज्ञान का महत्त्व अधिक सिद्ध होता है । यद्यपि बुद्ध श्रद्धा के महत्त्व को और ज्ञान प्राप्ति के लिए उसकी आवश्यकता को स्वीकार करते हैं, तथापि जहाँ श्रद्धा और ज्ञान में किसी की श्रेष्ठता का प्रश्न आता है वे ज्ञान (प्रज्ञा) की श्रेष्ठता को स्वीकार करते हैं । बौद्ध - साहित्य में बहुचर्चित कालामसुत्त भी इसका प्रमाण है । कालामों को उपदेश देते हुए बुद्ध स्वविवेक को महत्त्वपूर्ण स्थान देते हैं । वे कहते हैं 'हे कालामों, तुम किसी बात को इसलिए स्वीकार मत करो कि यह बात अनुश्रुत है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि यह बात परम्परागत है, केवल इस लिए मत स्वीकार करो कि यह बात इसी प्रकार कही गई है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि यह हमारे धर्म-ग्रंथ (पिटक) के अनुकूल है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि यह तर्क सम्मत है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि यह न्याय ( शास्त्र ) सम्मत है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि इसका आकार-प्रकार ( कथन का ढंग ) सुन्दर है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि यह हमारे मत के अनुकूल है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि कहने वाले का व्यक्तित्व आकर्षक है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि कहने वाला श्रमण हमारा पूज्य है । हे कालामों (यदि ) तुम जब आत्मानुभव से अपने आप ही यह जो कि ये बातें अकुशल हैं, ये बातें सदोष हैं, ये बातें विज्ञ पुरुषों द्वारा निंदित हैं, इन बातों के अनुसार चलने से अहित होता है, दुःख होता है - तो हे कालामों, तुम उन बातों को छोड़ दो' 3 बुद्ध का उपर्युक्त कथन श्रद्धा के ऊपर मानवीय विवेक की श्रेष्ठता का प्रतिपादक हैं । लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि बुद्ध मानवीय प्रज्ञा को श्रद्धा से पूर्णतया निर्मुक्त कर देते हैं । बुद्ध की दृष्टि में ज्ञानविहीन श्रद्धा मनुष्य के स्वविवेक रूपी चक्षु को समाप्त कर उसे अन्धा बना देती है और श्रद्धा विहीन ज्ञान मनुष्य को संशय और तर्क के मरूस्थल में भटका देता है। इस मानवीय प्रकृत्ति का विश्लेषण करते हुए विसुद्धिमग्ग में कहा है कि बलवान् श्रद्धावाला किन्तु मन्द प्रज्ञा वाला व्यक्ति बिना सोचे-समझे हर कहीं विश्वास कर लेता है और बलवान् प्रज्ञावाला किन्तु मन्द श्रद्धावाला व्यक्ति कुतार्किक (धूर्त) हो जाता है, वह औषधि से उत्पन्न होनेवाले रोग के समान ही असाध्य होता है । इस प्रकार बुद्ध श्रद्धा और विवेक के मध्य एक समन्वयवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं । उनकी दृष्टि में ज्ञान से युक्त श्रद्धा और श्रद्धा से युक्त ज्ञान ही साधना के क्षेत्र में सच्चे दिशा-निर्देशक हो सकते हैं । १. संयुत्तनिकाय, १११।५९ ३. अंगुत्तरनिकाय, ३।६५ Jain Education International २. वही, ४।४१।८ ४. गीता, ४।३९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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