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________________ त्रिविध साधना मार्ग २५ अर्थ लेते हैं तो उसका स्थान ज्ञान के पश्चात् हीं होगा। क्योंकि अविचल श्रद्धा तो ज्ञान के बाद ही उत्पन्न हो सकती है । उत्तराध्ययनसूत्र में भी दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ करते समय उसे ज्ञान के बाद ही स्थान दिया गया है । ग्रन्थकार कहते हैं कि ज्ञान से पदार्थ ( तत्त्व ) स्वरूप को जाने और दर्शन के द्वारा उस पर श्रद्धा करे ।' व्यक्ति के स्वानुभव ( ज्ञान ) के पश्चात् ही जो श्रद्धा उत्पन्न होती है, उसमें जो स्थायित्व होता है वह ज्ञानाभाव में प्राप्त हुई श्रद्धा से नहीं हो सकता । ज्ञानाभाव में जो श्रद्धा होती है, उसमें संशय होने की सम्भावना हो सकती है । ऐसी श्रद्धा यथार्थ श्रद्धा नहीं वरन् अन्ध श्रद्धा ही हो सकती है । जिन प्रणीत तत्त्वों में भी यथार्थ श्रद्धा तो उनके स्वानुभव एवं तार्किक परीक्षण के पश्चात् ही हो सकती है । यद्यपि साधना के लिए, आचरण के लिए श्रद्धा अनिवार्य तत्त्व है, लेकिन वह ज्ञान - प्रसूत होनी चाहिए । उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट कहा है कि धर्म की समीक्षा प्रज्ञा के द्वारा करे, तर्क से तत्त्व का विश्लेषण करे | 2 इस प्रकार यथार्थ दृष्टिपरक अर्थ में सम्यग्दर्शन को ज्ञान के पूर्व लेना चाहिए, जब कि श्रद्धापरक अर्थ में उसे ज्ञान के पश्चात् स्थान देना चाहिए । बौद्ध-विचारणा में ज्ञान और श्रद्धा का सम्बन्ध - बौद्ध - विचारणा ने सम्यग्दर्शन या सम्यग्दृष्टि शब्द का यथार्थ दृष्टिकोणपरक अर्थ स्वीकारा है और अष्टांगिक साधनामार्ग में उसे प्रथम स्थान दिया है । यद्यपि अष्टांग साधना - मार्ग में ज्ञान का कोई स्वतन्त्र स्थान नहीं है, तथापि वह सम्यग्दृष्टि में ही समाहित है । आंशिक रूप में उसे सम्यक् स्मृति के अधीन भी माना जा सकता है । तथापि बौद्ध साधना के त्रिविध मार्ग शील, समाधि, प्रज्ञा में ज्ञान को स्वतन्त्र स्थान भी प्रदान करते हैं । चाहे बुद्ध ने आत्मदीप एवं आत्मशरण के स्वर्णिम सूत्र का उद्घोष कर श्रद्धा की अपेक्षा स्वावलम्बन का पाठ पढ़ाया हो, फिर भी बौद्ध आचार-दर्शन में श्रद्धा का महत्त्वपूर्ण स्थान सभी युगों में रहा है । सुत्तनिपात में आलवक यक्ष के प्रति बुद्ध स्वयं कहते हैं कि मनुष्य का श्रेष्ठ धन श्रद्धा है 13 मनुष्य श्रद्धा से इस संसाररूप बाढ़ को पार करता है । इतना ही नहीं, ज्ञान की उपलब्धि के साधन के रूप में श्रद्धा को स्वीकार करके बुद्ध गीता की विचारणा के अत्यधिक निकट आ जाते हैं। गीता के समान ही बुद्ध सुत्तनिपात में आलवक यक्ष से कहते हैं, "निर्वाण की ओर ले जानेवाले अर्हतों के धर्म में श्रद्धा रखनेवाला अप्रमत्त और विचक्षण पुरुष प्रज्ञा प्राप्त करता है ।" 'श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं' और 'सद्दहानो लभते पञ्ञ' का शब्द - साम्य दोनों आचार - दर्शनों में निकटता देखनेवाले विद्वानों के लिए विशेषरूप से द्रष्टव्य है । लेकिन यदि हम श्रद्धा को आस्था के अर्थ में ग्रहण करते हैं तो बुद्ध की दृष्टि में १. उत्तराध्ययन, २८|३५ २. वही, २३।२५ ४. वही, १०१४ ३. सुत्तनिपात, १०२ ५. वही, १०।६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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