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समत्व-योग
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रखकर, समत्व से युक्त हो; तू कर्मों का आचरण कर, क्योंकि यह समत्व ही योग है।' समत्व-बुद्धियोग से सकाम-कर्म अति तुच्छ है, इसलिए हे अर्जुन, समत्व-बुद्धियोग का आश्रय ले क्योंकि फल की वासना अर्थात् आसक्ति रखनेवाले अत्यन्त दीन हैं ।२ समत्वबुद्धि से युक्त पुरुष पाप और पुण्य दोनों से अलिप्त रहता है ( अर्थात् समभाव होनेपर कर्म बन्धन कारक नहीं होते )। इसलिए समत्व-बुद्धियोग के लिए ही चेष्टा कर, समत्व बुद्धिरूप योग ही कर्म-बन्धन से छूटने का उपाय है, पाप-पुण्य से बचकर अनासक्त एवं साम्यबुद्धि से कर्म करने को कुशलता ही योग है।3 जो स्वाभाविक उपलब्धियों में सन्तुष्ट है, राग-द्वेष एवं ईर्ष्या से रहित निर्द्वन्द्व एवं सिद्धि-असिद्धि में समभाव से युक्त है, वह जीवन के सामान्य व्यापारों को करते हुए भी बन्धन में नहीं आता है । हे अर्जुन, अनेक प्रकार के सिद्धान्तों से विचलित तेरी बुद्धि जब समाधियुक्त हो निश्चल एवं स्थिर हो जायेगी, तब तू समत्वयोग को प्राप्त हो जायेगा। जो भी प्राणी अपनी वासनात्मक आत्मा को जीतकर शीत और उष्ण, मान और अपमान, सुख और दुःख जैसी विरोधी स्थितियों में भी सदैव प्रशान्त रहता है अर्थात् समभाव रखता है वह परमात्मा में स्थित है। जिसकी आत्मा तत्त्वज्ञान एवं आत्मज्ञान से तृप्त है जो अनासक्त एवं संयमी है, जो लौह एवं कांचन दोनों में समानभाव रखता है, वही योगी योग (समत्व-योग) से युक्त है, ऐसा कहा जाता है। जो व्यक्ति सुहृदय, मित्र, शत्रु, तटस्थ, मध्यस्थ, द्वषी एवं बन्धु मे तथा धर्मात्मा एवं पापियों में समभाव रखता है, वही अति श्रेष्ठ है अथवा वही मुक्ति को प्राप्त करता है । जो सभी प्राणियों को अपनी आत्मा में एवं अपनी आत्मा को सभी प्राणियों में देखता है अर्थात् सभी को समभाव से देखता है वही युक्तात्मा है। जो सुख-दुःखादि अवस्थाओं में सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान समभाव से देखता है, वही परमयोगी है ।१० जो अपनी इन्द्रियों के समूह को भलीभाँति संयमित करके सर्वत्र समत्वबुद्धि से सभी प्राणियों के कल्याण में निरत है, वह परमात्मा को ही प्राप्त कर लेता है ।१ जो न कभी हर्षित होता है, न द्वष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों के फल का त्यागो है, वह भक्तियुक्त पुरुष मुझे प्रिय है ।१२ जो पुरुष शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सर्दी-गर्मी और सुख-दुःखादि द्वन्द्वों में सम है और सब संसार में आसक्ति से रहित हैं3 तथा जो निन्दा-स्तुति को
१. गीता २।४८ ४. वही, ४।२३ ७. वही, ६८ १०. वही, ६।३२ १३. वही ६७ ..
२. वही, २।४९ ५. वही, २०५३ ८. वही, ६।९ (पाठान्तर-विमुच्यते) ११. वही, १२।४
३. वही, २५० ६. वही, ६७ ९. वही, ६।२९ १२. वही, १२।१७
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