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________________ ४५० जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन हैं । जो आत्मा इन चोरों पर विजयलाभ करती है, वही अपने गन्तव्य को प्राप्त करने में सफल होती है । यहाँ पर हमें तीन प्रकार के व्यक्तियों का चित्र मिलता है। एक वे जो आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधना के युद्धस्थल पर आते तो हैं, लेकिन साहस के अभाव में शत्रु की चुनौती का सामना न कर साधनारूपी युद्धस्थल से भाग खड़े होते हैं। दूसरे वे जो साधनारूपी युद्धक्षेत्र में डटे रहते हैं, संघर्ष भी करते है, फिर भी कौशल के अभाव में शत्रु पर विजय-लाभ करने में असफल होते हैं। तीसरे, वे जो साहस के साथ कुशलतापूर्वक प्रयास करते हुए साधना के क्षेत्र में विजय श्री का लाभ करते हैं। वैदिक चिन्तन में भी इस बात को इस प्रकार प्रकट किया गया है कि कुछ साधक साधना का प्रारम्भ ही नहीं कर पाते, कुछ उसे मध्य में ही छोड़ देते हैं लेकिन कुछ उसका अन्त तक निर्वाह करते हुए अपने साध्य को प्राप्त करते हैं।' लक्ष्य-उपलब्धि की यह प्रक्रिया जैन-साधना में ग्रन्थि-भेद कहलाती है। ग्रंथि-भेद का तात्पर्य आध्यात्मिक विकास में बाधक प्रगाढ़ मोह एवं राग-द्वेष की वृत्तियों का छेदन करना है। अगले पृष्ठों में हम इसी विषय पर विचार करेंगे। आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया और ग्रन्थि-भेद जैन नैतिक साधना का लक्ष्य स्वस्वरूप में स्थित होना या आत्म-साक्षात्कार करना है, लेकिन आत्म-साक्षात्कार के लिए मोहविजय आवश्यक है, क्योंकि आत्मा का शुद्ध स्वरूप इसी मोह से आवरित है । मोह के आवरण को दूर करने के लिए साधक को तीन मानसिक ग्रन्थियों का भेदन करना होता है। एक सरल उदाहरण लें। यह आत्मा जिस प्रासाद में रहता है उस पर मोह का आधिपत्य है, मोह ने आत्मा को बन्दी बना रखा है। प्रासाद के तीन द्वारों पर उसने अपने प्रहरी लगा रखे हैं। प्रथम द्वार पर निःशस्त्र प्रहरी है । दूसरे द्वार पर सशस्त्र, सबल और दुर्जेय प्रहरी है और तीसरे द्वार पर पुनः निःशस्त्र प्रहरी है । वहाँ जाकर आत्म-देव के दर्शन लाभ के लिए व्यक्ति को तीनों द्वारों से उनके प्रहरियों पर विजय-लाभ करते हुए गुजरना होता है। यह आत्मदेव का दर्शन ही आत्म-साक्षात्कार है। और यह तीन द्वार ही तीन ग्रन्थियाँ हैं और इन पर विजय-लाभ करने की प्रक्रिया प्रन्थि-भेद कहलाती है, जिसके क्रमशः नाम है१. यथाप्रवृत्तिकरण २. अपूर्वकरण और ३. अनिवृत्तिकरण । (अ) यथाप्रवृत्तिकरण-पंडित सुखलालजी के शब्दों में अज्ञानपूर्वक दुःख-संवेदना जनित अत्यल्प आत्म शुद्धि को जैन शास्त्र में यथाप्रवृत्ति करण कहते हैं । यथाप्रवृत्ति १. भर्तहरि-उद्धृत पाश्चात्य आचारविज्ञान का आलोचनात्मक अध्ययन, पृ० ४० । २. दिगम्बर मान्यता में इसे 'अथाप्रवृत्तिकरण' कहते हैं । देखिए-तत्त्वार्थराजवार्तिक-९।१-१३ । ३. दर्शन और चिन्तन, पृ० २६९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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