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आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास
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नैतिक पूर्णता की प्राप्ति । पारिभाषिक शब्दों में यह आत्मा का स्वरूप में स्थित हो जाना है । इसके लिए साधना के लक्ष्य या स्वरूप का यथार्थ बोध आवश्यक है । मोह की वह शक्ति जो स्वस्वरूप या आदर्श का यथार्थ बोध नहीं होने देती और जिसके कारण कर्तव्यअकर्तव्य का यथार्थभान नहीं हो पाता, उसे जैन दर्शन में दर्शन - मोह कहते हैं, और जिसके कारण आत्मा स्वस्वरूप में स्थित होने के लिए प्रयास नहीं कर पाता अथवा नैतिक आचरण नहीं कर पाता, उसे चरित्रमोह कहते हैं । दर्शन-मोह विवेक बुद्धि का कुण्ठन है और चारित्र मोह सत्प्रवृत्ति का कुण्ठन है । जिस प्रकार व्यवहार जगत् में वस्तु का यथार्थ बोध हो जाने पर ही उसकी प्राप्ति का प्रयास सफल होता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक-जगत् में भी सत्य का यथार्थ बोध होने पर उसकी प्राप्ति का प्रयास सफल होता है । आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया में आत्मा के दो प्रमुख कार्य हैं - पहला स्वस्वरूप और परस्वरूप या आत्म और अनात्म का यथार्थ विवेक करना और दूसरा स्वस्वरूप में स्थिति | दर्शन - मोह को समाप्त करने से यथार्थ बोध प्रकट होता है और चारित्रमोह पर विजय पाने से यथार्थ प्रयास का उदय होकर स्वस्वरूप में स्थिति हो जाती है । दर्शनमोह और चारित्रमोह में दर्शनमोह ही प्रबल है- यदि आत्मा इस दर्शन मोह अर्थात् यथार्थबोध के अवरोधक तत्त्व को भेदकर एक बार स्वस्वरूप का दर्शन कर लेता है अर्थात् आत्मा को अपने गन्तव्य लक्ष्य का बोध हो जाता है, तो फिर वह स्वशक्ति से इस चारित्रमोह को भी परास्त कर स्वरूप लाभ या आदर्श की उपलब्धि कर ही लेता है ।
जैन दर्शन यह मानता है कि आत्मा को स्वस्वरूप के लाभ या आध्यात्मिक आदर्श की उपलब्धि के लिए दर्शनमोह और चारित्रमोह से संघर्ष करना होता है । अशुभ वृत्तियों से संघर्ष विकास के लिए आवश्यक है इसी संघर्ष से आत्मा की विजय यात्रा प्रारम्भ होती है । जैन विचारणा के अनुसार आत्मा स्वभाव से विकास के लिए प्रयत्नशील है । फिर भी इस संघर्ष में सदैव जयलाभ ही नहीं करता है, वरन् कभी परास्त होकर पुनः पतनोन्मुख हो जाता है । दूसरे, इस संघर्ष में सभी आत्माएँ विजय लाभ नहीं कर पाती हैं । कुछ आत्माएँ संघर्ष - विमुख हो जाती हैं, तो कुछ इस आध्यात्मिक संघर्ष के मैदान में डटी रहती हैं और कुछ विजय लाभ कर स्वस्वरूप को प्राप्त कर लेती हैं । विशेषावश्यक भाष्य में इन तीनों अवस्थाओं का सोदाहरण विवेचन है । " तीन प्रवासी अपने गन्तव्य की ओर जा रहे थे । मार्ग में भयानक अटवी में उन्हें चोर मिल गये। चोरों को देखते ही उन तीनों में से एक भाग खड़ा हुआ । दूसरा उनसे डरकर भागा तो नहीं, लेकिन संघर्ष में विजय लाभ न कर सका और परास्त होकर उनके द्वारा पकड़ा गया। लेकिन तीसरा असाधारण बल और कौशल्य से उन्हें परास्त कर अपने गन्तव्य की ओर बढ़ गया । विकासोन्मुख आत्मा ही प्रवासी है । अटवी मनुष्य-जीवन है । राग और द्वेष ये दो चोर
१. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा १२११ - १२१४ ।
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