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तमस्व-योन
अपने समान समझकर आचरण करें' ।' समत्व का अर्थ राग द्वेष का प्रहाण या राग-द्वेष की शून्यता करने पर भी उसका बौद्ध विचारणा में समत्वयोग का महत्त्वपूर्ण स्थान सिद्ध होता है। उदान में कहा गया है कि राग-द्वेष और मोह का क्षय होने से निर्वाण प्राप्त होता है । बौद्ध-दर्शन में वर्णित चार ब्रह्मविहार अथवा भावनाओं में भी समत्वयोग का चिन्तन परिलक्षित होता है। मैत्री, करुणा और मुदिता ( प्रमोद ) भावनाओं का मुख्य आधार आत्मवत् दृष्टि है इसी प्रकार माध्यस्थ भावना या उपेक्षा के लिए सुखदुःख, प्रिय-अप्रिय, लौह-कांचन में समभाव का होना आवश्यक है । वस्तुतः बौद्ध विचारणा जिस माध्यस्थवृत्ति पर बल देती है, वह समत्वयोग ही है । ४. गीता के आचार-दर्शन में समत्वयोग
गीता के आचार-दर्शन का मूल स्वर भी समत्वयोग की साधना है। गीता को योगशास्त्र कहा गया है । योग शब्द युज् धातु से बना है, युज् धातु दो अर्थों में आता है। उसका एक अर्थ है जोड़ना, संयोजित करना और दूसरे अर्थ हैं संतुलित करना, मनः स्थिरता। गीता दोनों अर्थो में उसे स्वीकार करती है। पहले अर्थ में जो जोड़ता है, वह योग है अथवा जिसके द्वारा जुड़ा जाता है या जो जुड़ता है वह योग है, अर्थात् जो आत्मा को परमात्मा से जोड़ता है वह योग है। दूसरे अर्थ में योग वह अवस्था है जिसमें मनःस्थिरता होती है। डा० राधाकृष्णन् के शब्दों में योग का अर्थ है अपनी आध्यात्मिक शक्तियों को एक जगह इकट्ठा करना, उन्हें संतुलित करना और बढ़ाना ।" गीता सर्वांगपूर्ण योग-शास्त्र प्रस्तुत करती है। लेकिन प्रश्न उठता है कि गीता का यह योग क्या है ? गीता योग शब्द का प्रयोग कभी ज्ञान के साथ, कभी कर्म के साथ और कभी भक्ति अथवा ध्यान के अर्थ में करती है। अतः यह निश्चय कर पाना अत्यन्त कठिन है कि गीता में योग का कौन-सा रूप मान्य है। यदि गीता एक योग-शास्त्र है तो ज्ञानयोग का शास्त्र है या कर्मयोग का शास्त्र है अथवा भक्तियोग का शास्त्र है? यह विवाद का विषय रहा है। आचार्य शंकर के अनुसार गीता ज्ञानयोग का प्रतिपादन करती है। तिलक उसे कर्मयोग-शास्त्र कहते हैं । वे लिखते हैं कि यह निर्विवाद सिद्ध है कि गीता में योग शब्द प्रवृत्ति-मार्ग अर्थात् कर्मयोग के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है।" श्री रामानुजाचार्य, निम्बार्क और श्री वल्लभाचार्य के अनुसार गीता का प्रतिपाद्य विषय भक्तियोग है। गांधीजी उसे अनासक्तियोग कहकर कर्म और भक्ति का समन्वय करते
१. सुत्तनिपात, ३।३७७
२. उदान, ८६ ३. युज्यते एतदिति योगः, युज्यते अनेन इति योगः, युज्येत तस्मिन् इति योगः ४. योगसूत्र, ११२
५. भगवद्गीता (रा०), पृ० ५५ ६. गीता (शां०), २०११
७. गीतारहस्य, पृ० ६० ८. गीता (रामा०), १११ पूर्व कथन
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