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________________ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन धारणा करता है। यदि सम्यक् शब्द का अर्थ 'अच्छा' ग्रहण करते हैं तो प्रश्न यह होगा कि अच्छे से क्या तात्पर्य है ? वस्तुतः बौद्ध-दर्शन में इनके सम्यक् होने का तात्पर्य यही हो सकता है कि ये साधन व्यक्ति को राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठने की दिशा में कितने सहायक हैं । इनका सम्यक्त्व राग-द्वेष की वृत्तियों के कम करने में है अथवा सम्यक् होने का अर्थ है राग-द्वष और मोह से रहित होना। राग-द्वेष का प्रहाण ही समत्व-योग की साधना का प्रयास है । बौद्ध अष्टांग आर्य मार्ग में अन्तिम सम्यक् समाधि है । यदि हम समाधि को व्यापक अर्थ में ग्रहण करें तो निश्चित ही वह मात्र ध्यान की एक अवस्था न होकर चित्तवृत्ति का 'समत्व' है, चित्त का राग-द्वेष से शून्य होना है और इस अर्थ में वह जैन-परम्परा की 'समाहि' ( समाधि-सामायिक ) से भी अधिक दूर नहीं है । सूत्रकृतांगचूणि में कहा गया है कि राग-द्वेष का परित्याग समाधि है। वस्तुतः जब तक चित्तवृत्तियाँ सम नहीं होतीं, तब तक समाधि-लाभ संभव नहीं। भगवान् बुद्ध ने कहा है, जिन्होंने धर्मों को ठीक प्रकार से जान लिया है, जो किसी मत, पक्ष या वाद में नहीं हैं, वे सम्बुद्ध हैं, समद्रष्टा हैं और विषम स्थिति में भी उनका आचरण सम रहता है । बुद्धि, दृष्टि और आचरण के साथ लगा हुआ सम् प्रत्यय बौद्ध-दर्शन में समत्वयोग का प्रतीक है जो बुद्धि, मन और आचरण तीनों को सम बनाने का निर्देश देता है । संयुत्त निकाय में कहा है, 'आर्यों का मार्ग सम है, आर्य विषमस्थिति में भी सम का आचरण करते हैं । धम्मपद में बुद्ध कहते हैं, जो समत्व-बुद्धि से आचरण करता है तथा जिसकी वासनाएँ शान्त हो गयी हैं-'जो जितेन्द्रिय है, संयम एवं ब्रह्मचर्य का पालन करता है, सभी प्राणियों के प्रति दण्ड का त्याग कर चुका है अर्थात् सभी के प्रति मैत्रीभाव रखता है, किसी को कष्ट नहीं देता है, ऐसा व्यक्ति चाहे वह आभूषणों को धारण करने वाला गृहस्थ हो क्यों न हो, वस्तुतः श्रमण है, भिक्षुक है। जैन-विचारणा में 'सम' का अर्थ कषायों का उपशम है । इस अर्थ में भी बौद्ध विचारणा समत्वयोग का समर्थन करती है। मज्झिमनिकाय में कहा गया है-'राग-द्वष एवं मोह का उपशम ही परम आर्य-उपशम है। बौद्ध परम्परा में भी जैन परम्परा के समान ही यह स्वीकार किया गया है कि समता का आचरण करने वाला ही श्रमण है । समत्व का अर्थ आत्मवत् दृष्टि स्वीकार करने पर भी बौद्ध विचारणा में उसका स्थान निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है। सुत्तनिपात में कहा गया है कि 'जैसा मैं हूँ वैसे ही जगत् के सभी प्राणी हैं, इसलिए सभी प्राणियों को ३. वही, १।२।६ १. सूत्रकृतांगचूणि, ११२।२ २. संयुत्तनिकाय, १।२८ ४. धम्मपद, १४२ __५. मज्झिमनिकाय, ३।४०।२ ६. धम्मपद ३८८ तुलना कीजिए-उत्तराध्ययन, २५।३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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