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________________ ४०० जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाव में लौट आता है, तो यह भी प्रतिकूल गमन के कारण प्रतिक्रमण कहलाता है। (३) अशुभ आचरण से निवृत्त होकर मोक्षफलदायक शुभ आचरण में निःशल्य भाव से प्रवृत्त होना प्रतिक्रमण है।' आचार्य भद्रबाहु ने प्रतिक्रमण के निम्न पर्यायवाची नाम दिये हैं-(१) प्रतिक्रमणपापाचरण के क्षेत्र से प्रतिगामी होकर आत्मशुद्धि के क्षेत्र में लौट आना अथवा परस्थान में गये हुए साधक का पुनः स्वस्थान में लौट आना । (२) प्रतिचरण-हिंसा, असत्य आदि से निवृत्त होकर अहिंसा, सत्य एवं संयम के क्षेत्र में अग्रसर होना । (३) परिहरणसब प्रकार से अशुभ प्रवृत्तियों एवं दुराचरणों का त्याग करना (४) वारण-निषिद्ध आचरण की ओर प्रवृत्ति नहीं करना । बौद्ध धर्म में प्रतिक्रमण के समान की जाने वाली क्रिया को प्रवारणा कहा गया है। (५) निवृत्ति-अशुभ भावों से निवृत्त होना । (६) निन्दा-गुरुजन, वरिष्ठ-जन अथवा स्वयं अपनी ही आत्मा की साक्षी से पूर्वकृत अशुभ आचरणों को बुरा समझना तथा उसके लिए पश्चाताप करना। (७) गर्हा-अशुभ आचरण को गहित समझना, उससे घृणा करना। (८) शुद्धि-प्रतिक्रमण आलोचना, निन्दा आदि के द्वारा आत्मा पर लगे दोषों से आत्मा को शुद्ध बनाता है, इसलिए उसे शुद्धि कहा गया है। प्रतिक्रमण किसका-स्थानांगसूत्र में इन छह बातों के प्रतिक्रमण का निर्देश है(१) उच्चार प्रतिक्रमण-मल आदि का विसर्जन करने के बाद ईर्या (आने-जाने में हुई जीवहिंसा) का प्रतिक्रमण करना उच्चार प्रतिक्रमण है। (२) प्रश्रवण प्रतिक्रमणपेशाब करने के बाद ईर्या का प्रतिक्रमण करना प्रश्रवण प्रतिक्रमण है । (३) इत्वर प्रतिक्रमण-स्वल्पकालीन प्रतिक्रमण करना इत्वर प्रतिक्रमण है। (४) यावत्कथिक प्रतिक्रमण-सम्पूर्ण जीवन के लिए पाप से निवृत्त होना यावत्कथिक प्रतिक्रमण है । (५) यत्किंचिन्मिथ्या प्रतिक्रमण-सावधानी पूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए भी प्रमाद अथवा असावधानी से किसी भी प्रकार का असंयमरूप आचरण हो जाने पर तत्काल उस भूल को स्वीकार कर लेना और उसके प्रति पश्चाताप करना यत्किंचिन्मिथ्या प्रतिक्रमण है । (६) स्वप्नांतिक प्रतिक्रमण-विकार-वासना रूप कुस्वप्न देखने पर उसके सम्बन्ध में पश्चाताप करना स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण है। यह विवेचना प्रमुखतः साधुओं की जीवनचर्या से सम्बन्धित है । आचार्य भद्रबाहु ने जिन-जिन तथ्यों का प्रतिक्रमण करना चाहिए इसका निर्देश आवश्यकनियुक्ति में किया है। उनके अनुसार (१) मिथ्यात्व, (२) असंयम, (३) कषाय एवं (४) अप्रशस्त कायिक, वाचिक एवं मानसिक व्यापारों का प्रतिक्रमण करना चाहिए। प्रकारान्तर से आचार्य ने निम्न बातों १. आवश्यक टीका, उद्धृत श्रमणसूत्र, पृ० ८७ । २. स्थानांग सूत्र, ६।५३८। ३. आवश्यकनियुक्ति, १२५०-१२६८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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