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________________ समत्व-योग ( साम्यावस्था) में स्थायी अवस्थिति ही है । गीता का नैतिक आदर्श भी इस द्वन्द्वातीत साम्यावस्था की उपलब्धि है । क्योंकि वही अबन्धन की अवस्था है ।' गीता के अनुसार इच्छा (राग) एवं द्वेष से समुत्पन्न यह द्वन्द्व ही अज्ञान है, मोह है । इस द्वन्द्व से ऊपर उठकर ही परमात्मा की आराधना सम्भव होती है । जो इस द्वन्द्व से विमुक्त हो जाता है वही परमपद मोक्ष या निर्वाण को प्राप्त हो जाता है । इस प्रकार राग-द्वेषातीत समत्व-प्राप्ति की दिशा में प्रयत्न ही समालोच्य आचार- दर्शनों की नैतिक साधना का केन्द्रीय तत्त्व है | जैन - आचारदर्शन में समत्व-योग $ २. जैन-विचार में नैतिक एवं आध्यात्मिक साधना के मार्ग को समत्व योग कह सकते हैं । इसे जैन पारिभाषिक शब्दावली में सामायिक कहा जाता है । समग्र जैन नैविक तथा आध्यात्मिक साधना को एक ही शब्द में समत्व की साधना कह सकते हैं । सामायिक शब्द सम् उपसर्ग पूर्वक अय् धातु से बना है । अय् धातु के तीन अर्थ हैंज्ञान, गमन और प्रापण । ज्ञान शब्द विवेक बुद्धि का, गमन शब्द आचरण या क्रिया का और प्रापण शब्द प्राप्ति या उपलब्धि का द्योतक है। सम् उपसर्ग उनकी सम्यक् या उचितता का बोध कराता है । सम्यक् की प्राप्ति ही सम्यक्त्व या सम्यक्दर्शन है । कुछ विचारकों के अनुसार सम्यक् क्रिया विधि-पक्ष में सम्यक् चारित्र और भावपक्ष में सम्यग्दर्शन (श्रद्धा) है । दूसरे कुछ विचारकों की दृष्टि में सम्यक् ज्ञान शब्द में दर्शन भी अन्तर्निहित है । सम् का एक अर्थ रागद्वेष से अतीत अवस्था भी है और अम् धातु का प्रापण या प्राप्तिपरक अर्थ लेने पर उसका अर्थ होगा राग-द्वेष से अतीत अवस्था की प्राप्ति, जो प्रकारान्तर से मुक्ति का सूचक है । इस प्रकार सामायिक ( समत्वयोग ) शब्द एक ओर सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र रूप त्रिविध साधना पथ को अपने में समाहित किये हुए है तो दूसरी ओर इस त्रिविध साधना पथ के साध्य (मुक्ति) से भी समन्वित है । ― आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यकनिर्युक्ति में सामायिक के तीन प्रकार बताये हैं:१. सम्यक्त्व - सामायिक, २. श्रुत - सामायिक और ३. चारित्र - सामायिक | चारित्र सामायिक के श्रमण और गृहस्थ साधकों के आचार के आधार पर दो भेद किये हैं । सम्यक्त्व सामायिक का अर्थ सम्यग्दर्शन, श्रुत-सामायिक का अर्थ सम्यग्ज्ञान और चारित्र सामायिक का अर्थ सम्यक्चारित्र है । इन्हें आधुनिक मनोवैज्ञानिक भाषा में चित्तवृत्ति का समत्व, बुद्धि का समत्व और आचरण का समत्व कह सकते हैं । इस प्रकार जैनविचार का साधना-पथ वस्तुतः समत्वयोग की साधना ही है, जो मानव चेतना के तीन १. गीता ४।१२ ३. वही, १५५ Jain Education International २. वही, ७।२७-२८ ४. आवश्यकनिर्युक्ति ७९६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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