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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्यय
ही उसके दुःख का मूल कारण है । यद्यपि वह इच्छाओं की पूर्ति के द्वारा उन्हें शान्त करना चाहता है, परन्तु नयी-नयी कामनाओं के उत्पन्न होते रहने से वह सदैव ही आकुल या अशान्त बना रहता है और बाह्य जगत् में उनकी पूर्ति के लिए मारा-मारा फिरता है । यह आसक्ति या राग न केवल उसे समत्व के स्वकेन्द्र से च्युत करता है, वरन् उसे बाह्य पदार्थों के आकर्षण क्षेत्र में खींचकर उसमें एक तनाव भी उत्पन्न कर देता है और इससे चेतना दो केन्द्रों में बँट जाती है । आचारांगसूत्र में कहा है, यह मनुष्य अनेकचित्त है, अर्थात् अनेकानेक कामनाओं के कारण मनुष्य का मन बिखरा हुआ रहता है । वह अपनी कामनाओं की पूर्ति क्या करना चाहता है, एक तरह छलनी को जल से भरना चाहता है ।" इन दो स्तरों पर चेतना में दोहरा संघर्ष उत्पन्न हो जाता है१. चेतना के आदर्शात्मक और वासनात्मक पक्षों में (इसे मनोविज्ञान में 'ईड' और 'सुपर इगो' का संघर्ष कहा है) तथा २. हमारे वासनात्मक पक्ष का उस बाह्य परिवेश के साथ, जिसमें वह अपनी वासनाओं की पूर्ति चाहता है । इस विकेन्द्रीकरण और तज्जनित संघर्ष में आत्मा की सारी शक्तियाँ बिखर जाती हैं, कुण्ठित हो जाती हैं ।
नैतिक साधना का कार्य इसी संघर्ष को समाप्त कर चेतन समत्व को यथावत् कर देना है, ताकि उस केन्द्रीकरण द्वारा वह अपनी ऊर्जाओं को जोड़कर आत्मशक्ति का यथार्थ प्रकटन कर सके ।
एक अन्य दृष्टि से विचार करे तो हम बाह्य जगत् में रस लेने के लिए जैसे ही उसमें अपना आरोपण करते हैं, वैसे ही एक प्रकार का द्वैत प्रकट हो जाता है, जिसमें हम अपनेपन का आरोपण करते हैं, आसक्ति रखते हैं, वह हमारे लिए 'स्व' बन जाता है और उससे भिन्न या विरोधी 'पर' बन जाता है । आत्मा की समत्व के केन्द्र से च्युति ही उसे इन 'स्व' और 'पर' के दो विभागों में बाँट देती है । नैतिक चिन्तन में इन्हें हम क्रमशः राग और द्वेष कहते हैं । राग आकर्षण का सिद्धान्त है और द्वेष विकर्षण का । अपना-पराया, राग-द्वेष अथवा आकर्षण - विकर्षण के कारण हमारी चेतना में सदैव ही तनाव, संघर्ष अथवा द्वन्द्व बना रहता है, यद्यपि चेतना या आत्मा अपनी स्वाभाविक शक्ति के द्वारा सदैव साम्यावस्था या संतुलन बनाने का प्रयास करती रहती है । लेकिन राग एवं द्वेष किसी भी स्थायी सन्तुलन की अवस्था को सम्भव नहीं होने देते । यही कारण है कि भारतीय नैतिकता में राग-द्वेष से ऊपर उठना सम्यक जीवन की अनिवार्य शर्त मानी गई है ।
भारतीय नैतिक चिन्तन सदैव ही इस दृष्टि से जागरूक रहा है । जैन नैतिकता का वीतरागता या समत्वयोग (समभाव ) का आदर्श और बौद्ध नैतिकता का सम्यक् समाधि या वीततृष्णता का आदर्श राग-द्वेष के इस द्वन्द्व से ऊपर उठकर समत्व
१. आचारांग १।३।२।११४
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