SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 385
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन, बौद्ध तथा गीता के आधारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन - ५. सुरामेरयमद्यविरमण- - बौद्ध भिक्षु तथा गृहस्थ दोनों के लिए ही सुरापान, मद्यपान एवं नशैली वस्तुओं का सेवन वर्जित है । जैन परम्परा में भी गृहस्थ एवं मुनि दोनों के लिए मद्यपान वर्जित है । जैन परम्परा में मद्यपान से विरत होना साधक के लिए आवश्यक है, जबतक कोई भी व्यक्ति इससे विरत नहीं होता है वह धर्म मार्ग में प्रवेश पाने का अधिकारी नहीं है । ३४६ ६. विकाल भोजनविरमण — विकाल - भोजनविरमण बौद्ध भिक्षु एवं उपोसथव्रत लेने वाले गृहस्थ के लिए आवश्यक है । भिक्षुओं के लिए विकालभोजन एवं रात्रि भोजन को त्याज्य बताया गया है । मज्झिमनिकाय में बुद्ध कहते हैं "हे भिक्षुओ, मैंने रात्रि भोजन को छोड़ दिया है, उससे मेरे शरीर में व्याधि कम हो गई है, जाड्य कम हो गया है, शरीर में बल आया है; चित्त को शांति मिली है । हे भिक्षुओं, तुम भी ऐसा ही आचरण रखो । यदि तुम रात्रि में भोजन करना छोड़ दोगे तो तुम्हारे शरीर में व्याधि कम होगी, जाड्य कम होगा, शरीर में बल आयेगा और तुम्हारे चित्त को शांति मिलेगी' ।” बौद्ध परम्परा में दिन के १२ बजे के पश्चात् से लेकर दूसरे दिन सूर्योदय के पूर्व तक का समय 'विकाल' माना जाता है । इस समय के बीच भोजन करना बौद्ध भिक्षु के लिए वर्जित है । सामान्यतया बौद्ध भिक्षु के लिए भी एक ही समय भोजन करने का विधान है । ७. नृत्यगानवादित्रविरमण – नृत्य गान एवं वाद्यवादन बौद्ध भिक्षु के लिए वर्जित हैं । अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध कहते हैं कि भिक्षुओ, यह जो गाना है, वह आर्य-विनय के अनुसार रोना ही है । भिक्षुओ, यह जो नाचना है, वह आर्य-विनय के अनुसार पागलपन ही है । भिक्षुओ, यह जो देर तक दाँत निकालकर हँसना है, यह आर्यविनय के अनुसार बचपन ही है । इसलिए भिक्षुओ, यह जो गाना है, यह सेतु ( का ) घातमात्र ही है, यह जो नाचना है, यह सेतु ( का ) घातमात्र ही है । धर्मानन्दी सन्त पुरुषों का मुस्कराना ही पर्याप्त है । 2 जैन परम्परा के अनुसार भी भिक्षु के लिए नृत्य गान आदि वर्जित है, यद्यपि जैन परम्परा में इसके लिए किसी स्वतन्त्र व्रत की व्यवस्था नहीं है । उत्तराध्ययन में भी कहा है कि सभी गान विलापरूप हैं, सभी नृत्य विडंबनाएँ हैं, सभी आभूषण भाररूप हैं और सभी काम दुःखदायक हैं । अज्ञानियों के प्रिय किन्तु अन्त में दुःख देनेवाले कामगुणों में वह सुख नहीं है जो कामविरत शीलगुण में रत भिक्षु को होता है । 3 इस प्रकार हम देखते हैं कि दोनों ही परम्पराएं भिक्षु के लिए नृत्य - गान आदि को वर्जित मानती हैं । १. मज्झिमनिकाय - कीटागिरि - सुत्त ( ७० ) । ३. उत्तराध्ययन, १३।१६-१७ । Jain Education International २. अंगुत्तरनिकाय, ३।१०३ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy